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साधना का लक्ष्य
साधना के जीवन में किसी भी एक लक्ष्य और ध्येय का बड़ा महत्त्व होता है । ध्येय-हीन एवं लक्ष्य-हीन जीवन इधर-उधर भटकता रहता है, वह अपनी जिन्दगी की किसी एक निश्चित मंजिल पर नहीं पहुंच सकता । सब कुछ करने पर भी उसे कुछ प्राप्त नहीं हो पाता । इसका मुख्य कारण यही है, कि उसे क्या होना है और कैसा होना है तथा कब होना है ? इस विषय में वह अच्छी तरह न कोई विचार कर पाता है, और न कोई निर्णय ही ले पाता है। इस प्रकार का लक्ष्य-हीन एवं ध्येय-हीन साधक अनन्त-अनन्तकाल से भटक रहा है और अनन्त-अनन्तकाल तक भटकता रहेगा। उसकी जीवन-नौका कभी किनारे नहीं लग सकती । अतएव साधक के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न यही रहता है, कि उसका ध्येय एवं लक्ष्य क्या है ? संसार के भोग चक्र में उलझे रहना ही उसके जीवन का लक्ष्य है ? अथवा संसार के भव-बन्धनों को काट कर अजर, अमर, शाश्वत सुख प्राप्त करना उसका लक्ष्य है ? मैं समझता हूँ कि अध्यात्म-साधना का जितना महत्व है, उससे भी अधिक महत्व इस बात का है, कि साधक यह समझे कि उसे क्या करना है, कैसे करना है और कब करना है ?
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