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________________ ८४ | अध्यात्म-प्रवचन पहले लक्ष्य स्थिर करो और फिर आगे बढ़ो | अध्यात्म-जीवन का यही एक मात्र प्रशस्त राजमार्ग है । आत्मा में काम एवं क्रोध आदि के विकल्प एवं विकार आज से नहीं, अनन्त काल से रहे हैं । इन विकारों को जीतने का अनेक बार प्रयत्न किया गया, किन्तु सफलता नहीं मिली । अनन्तकाल से यह मोह-मुग्ध आत्मा संसार सागर की उत्ताल तरंगों पर उठता और गिरता रहा है । अनन्तवार वह संसार सागर में बहुत गहरा डूबा है और अनेक बार उससे निकलने का यथासम्भव प्रयत्न भी वह कर चुका है। क्या कारण है कि वह फिर भी अभी तक निकल नहीं पाया । प्रयत्न करने पर भी उसे अनुकूल फल क्यों नहीं मिला ? यह एक विकट प्रश्न है | अध्यात्म शास्त्र इस विषय में बतलाता है कि प्रयत्न तो किया गया, किन्तु उस प्रयत्न से पूर्व उचित विवेक नहीं रखा गया । साधना के क्षेत्र में विवेक का मूल अर्थ है अपने वास्तविक लक्ष्य को जानना एवं अपने विशुद्ध ध्येय को पहचानना । जीव ने सुखी होने की अनन्तवार अभिलाषा की, फिर भी वह सुखी क्यों नहीं हो सका ? क्या आपने कभी इस प्रश्न पर अपने जीवन की इस समस्या पर गम्भीरता के साथ विचार किया है ? क्या आपने यह जानने का प्रयत्न किया है कि मैं कौन हूँ और क्या हूँ ? आज के इस भौतिक युग का मानव प्रकृति पर विजय प्राप्त करना चाहता है, उसके एक-से-एक गूढ़ रहस्य को खोज निकालना चाहता है, परन्तु क्या कभी उसने अपने पर विजय प्राप्त करने का विचार किया ? अपने अन्तरतम के रहस्य को जानने का प्रयत्न किया ? इस भौतिकतावादी युग में कदाचित् हो कोई आत्मा अपने को समझने का प्रयत्न करता है और अपने को परखने का प्रयत्न करता है । आज के इस भौतिकबादी विज्ञान ने अनन्त आकाश में उड़ने के लिए वायुयान बनाया, समुद्र की अपार जल - राशि में तैरने के लिए जलयान और एक राष्ट्र की दूसरे राष्ट्र से सामीप्यता स्थापित करने के लिये अनेक भौतिक साधनों का आविष्कार किया । परन्तु क्या कभी उसने यह भी सोचा एवं समझा कि मैं क्रोध क्यों करता हूँ, मैं लोभ क्यों करता हूँ, मैं राग क्यों करता हूँ और में द्वेष क्यों करता हूँ ? विकार और विकल्प मेरे अपने हैं अथवा मेरे से भिन्न हैं । क्या कभी यह समझने का प्रयत्न किया गया, कि जीवन में उत्थान कैसे आता है और जीवन का पतन क्यों होता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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