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________________ सम्यग् दर्शन के लक्षण: अतिचार | ३३७ लोलुपता की अनुभुति न रहकर केवल आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का ही परिबोध हो, वस्तुतः आत्मा की इसी स्थिति को निर्वेद कहा जाता है । जिस आत्मा में निर्वेद की अभिव्यक्ति हो जाती है, वह आत्मा फिर संसार के किसी भी पदार्थ में स्वरूपविच्युतिकारक आसक्ति और अनुरक्ति नहीं रखता । जिस व्यक्ति के हृदय में मोक्ष की अभिरुचि होती है, उसी के हृदय में यह निर्वेद स्थिर हो पाता है। निर्वेद का दिव्य दीपक जिस घट में आलोकित होता है, उस व्यक्ति के मन में फिर संसार के किसी भी पदार्थ के प्रति किसी भी प्रकार का स्वरूपानुभूति को भ्रष्ट करने वाला तीव्र आकर्षण नहीं रहता । यह निर्वेदभाव जिस किसी भी जीवन में स्थिर हो जाता है, तो समझिए उस आत्मा को सम्यक् दर्शन की ज्योति की उपलब्धि हो चुकी है । सम्यक् दर्शन का चतुर्थ लक्षण है-अनुकम्पा । अनुकम्पा, दया और करुणा- इन तीनों का एक ही अर्थ है । संसार में अनन्त प्राणी हैं, और वे सब समान नहीं हैं। कोई सुखी है, तो कोई दुखी है । कोई निर्धन है, तो कोई धनवान । कोई मूर्ख है, तो कोई विद्वान | इस प्रकार संसार के प्रत्येक प्राणी की स्थिति दूसरे प्राणी से भिन्न प्रकार की है । इस विषमतामय संसार में कहीं पर भी समता और समानता दृष्टिगोचर नहीं होती । इस विचित्रता और विषमता के आधार पर ही ससार को संसार कहा जाता है। संसार के सुखी जीव को देखकर प्रसन्न होना, प्रमोद भावना है, और संसार के दुःखी जीव को देखकर, उसके दुःख से द्रवित होना, यह करुणा भावना है । करुणा और दया का अर्थ है - हृदय की वह सुकोमल भावना, जिसमें व्यक्ति अपने दुःख से नहीं, बल्कि दूसरे के दुःख से द्रवित हो जाता है । पर दुःख कातरता और परदुःखद्रवणशीलता यह आत्मा का एक विशिष्ट गुण है । निर्दय और क्रूर व्यक्ति के हृदय में कभी भी करुणा का और दया का भाव जागृत नहीं होता है । करुणा रस सब रसों से अधिक व्यापक माना जाता है । मेरे कहने का अभिप्राय यह है, कि जो समर्थ व्यक्ति अपने जीवन में किसी के आँसू न पोंछ सका, वह व्यक्ति किसी भी प्रकार की धर्म - साधना कैसे कर सकता है । सम्यक् दर्शन की उपलब्धि के लिए अन्य सभी गुणों की अपेक्षा इस अनुकम्पा की ही सबसे बड़ी आवश्यकता है । जिस व्यक्ति के हृदय में दया का सागर तरंगित होता रहता है, वह आत्मा एक दिन अवश्य ही सम्यक् दर्शन के प्रकाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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