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________________ १०८ ! अध्यात्म प्रवचन बड़ा अन्तर है । पागल चलता तो रहता है, निरन्तर चलता रहता है, किन्तु उसे यह पता नहीं रहता, मैं कहाँ चल रहा है ? और कहाँ जा रहा हूँ ? इसके विपरीत किसी भी समझदार यात्री के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उसे अपनी यात्रा के उद्देश्य का और पथ का पूर्ण ज्ञान रहता है । समझदार व्यक्ति से यदि पूछा जाए, कि आप कहाँ जा रहे हैं, तो वह आपको स्पष्ट उतर देगा, कि मैं अमुक स्थान पर जा रहा है। और यदि आप उससे आगे प्रश्न करें तो वह आपको यह भी बतलाएगा, कि मेरे वहाँ जाने का उद्देश्य क्या है ? इस विराट विश्व का प्रत्येक चेतन प्राणी यात्रा कर रहा है, आज से नहीं, अनन्त अनन्त काल से । क्या मनुष्य, क्या पशु, क्या पक्षी और क्या कीट पतंग सभी अपने जीवन की यात्रा में दिन और रात चलते ही रहते हैं। परन्तु चलना अलग है, और चलने का ज्ञान रहना अलग है। चलना तभी सार्थक एवं सफल हो सकता है, जब कि मार्ग का ज्ञान हो और जहां पहुंचना है उस स्थान का भी परिज्ञान हो । मैं पूछ रहा हैं, आपसे कि आपकी जीवन यात्रा में यदि आपको कहीं पर लक्ष्यहीन पागल यात्री मिल जाता है, तो उसकी बात सुनकर आपके मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? आप यही कहेंगे न, कि यह एक पागल है, जिसे यह भी पता नहीं कि मैं कौन है ? और कहाँ जा रहा है। इस प्रकार के पागल यात्री के जीवन की सारी दौड़-धूप व्यर्थ होती है। उसका श्रम और उसका कष्ट-सहन उसे कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं दे सकता। यही बात अध्यात्म-जीवन की साधना के सम्बन्ध में भी है। अध्यात्म दर्शन कहता है, कि साधक की साधना का लक्ष्य काम, क्रोध, मद, लोभ एवं मोह आदि विकार और विकल्पों के बन्धन को तोड़ कर आत्म स्वरूप और मुक्ति की उपलब्धि करना है। बाहर के आवरण को हटा कर अन्दर के प्रसुप्त ईश्वरत्व को जगाना है । साधक के जीवन का एक मात्र साध्य एवं लक्ष्य यही है, कि वह अज्ञान से ज्ञान की ओर बढ़े, मृत्यु से अमरता की ओर बढ़े और असत्य से सत्य की ओर बढ़े। विभिन्न युगों के युग पुरुषों ने अपने-अपने युग की युगचेतना को यही सन्देश दिया है और यही उपदेश दिया है कि पहले अपने लक्ष्य को स्थिर करो और फिर दृढ़ता के फौलादी कदमों से साधना-पथ पर निरन्तर आगे बढ़ते रहो। इस प्रकार विनय और विवेक के साथ अपने साधना पथ पर निरन्तर आगे बढ़ने वाला साधक आत्मा से परमात्मा बन जाता है, भक्त से भगवान् बन जाता है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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