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साध्य और साधन | १०६ क्षुद्र जीव से परब्रह्म बन जाता है । ईश्वरत्व कहीं बाहर से नहीं आता, वह तो सदा काल से हमारे अन्दर है ही, किन्तु वह प्रसुप्त पड़ा है, उसे प्रबुद्ध-भर करना है। आत्म-स्वरूप की उपलब्धि का अर्थ यह नहीं होता, कि वह स्वरूप पहले अन्दर में नहीं था और साधना के द्वारा कहीं बाहर से वह अन्दर आ गया। बाहर की चीज कभी स्थायी नहीं हो सकती। हमें जो कुछ पाना है, अपने अन्दर से ही पाना है। पाने का अर्थ इतना ही है-जो स्वरूप कर्म मल से ढंका हुआ था, उसे प्रकट कर देना है।
अब तक के विवेचन पर से यह सिद्ध हो जाता है कि साध्य का महत्त्व बहुत बड़ा है । परन्तु आप इस बात को भी न भूलें, कि अध्यात्म-शास्त्र में साध्य के साथ-साथ साधन को भी बताया है। यदि केवल साध्य बता दिया जाए और साधन का ज्ञान न कराया जाए, तो साध्य की सिद्धि कैसे हो सकेगी? केवल साध्य को बता देने मात्र से तो वह प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए साध्य के साथ साधन का परिज्ञान भी परमावश्यक है, ___ मैं आपसे जिस अध्यात्मवाद की चर्चा कर रहा था, उसमें साध्य के साथ-साथ साधन का भी प्रतिपादन किया गया है। हमारे साध्य का साधन क्या है ? मोक्ष के साधन क्या हैं ? सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र । सीधी सादी भाषा में इसको विश्वास, विचार और आचार कहा जा सकता है। प्रश्न होता है, कि विश्वास किसका, विचार किसका, और आचार किसका ? संसार में अनन्तअनन्त पदार्थ हैं, उनमें से किस पर विश्वास करें, किस पर विचार करें और किसका आचरण करें ? इस प्रश्न के समाधान में अध्यात्म-शास्त्र का एक ही उत्तर है अथवा एक ही समाधान है, और वह यह किअपने आप पर विश्वास करो, अपने आपको समझो और अपने आपको निर्मल बनाने का प्रयत्न करो। अनन्त-अनन्त काल से हम चेतन से भिन्न जड़ तत्व पुद्गल पर विश्वास करते आए हैं, उसी पर विचार करते आए हैं और उसी का अधिकाधिक संग्रह करते आए हैं, इस आशा से कि इसी से हमें सुख, सन्तोष और शान्ति मिलेगी। परन्तु पुद्गल से प्रेम करने पर भी, जीवन में उसका अधिकाधिक संचय करने पर भी जीवन में सुख, सन्तोष और शान्ति की उपलब्धि नहीं हो सकी । इससे कुछ आगे बढ़े, तो हमने सम्प्रदाय पर विश्वास किया, पंथ पर विश्वास किया, पंथ की वेश-भूषा पर विश्वास किया, और
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