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________________ २७८ | अध्यात्म-प्रवचन और अपने पापिष्ठ होने का विश्वास करता है, उसका उद्धार कैसे हो सकता है और कौन कर सकता है ? जो व्यक्ति बाहर में तथा अन्दर में सर्वत्र अशुभ का ही दर्शन करते हैं, उन्हें सम्यक् दर्शन की दिव्य ज्योति की उपलब्धि कभी नहीं हो सकती । भारत का अध्यात्मवादी दर्शन कहता है, कि जब अन्तर का दर्शन करो, तब अन्तर में रावण का दर्शन मत करो, राम का करो । यदि अन्दर घट में झांक कर देखने में परमात्मा की ज्योति जगमगाती नजर आए, तो समझना कि 'सम्यक् दर्शन मिल गया है और मुक्ति का द्वार खुल गया है । इसके विपरीत यदि अन्दर में भी तुम विलाप ही करते हो, दुःख और क्लेश के काले कजरारे बादल ही तुम्हारे हृदयाकाश में उमड़-घुमड़ कर छा रहे हों और वहाँ अहंकार को घोर गर्जना हो रही हो, तथा वासना की बिजली चमक रही हो, तो समझ लेना, तुम्हारा उद्धार नहीं हो सकेगा । विश्वास रखिए, और ध्यान में रखिए कि अविश्वासी क्रूर आत्मा को कभी सम्यक् दर्शन की दिव्य ज्योति मिल नहीं सकती । अतः अन्दर में शुभ दर्शन का अभ्यास करो और जब शुभ से शुद्ध की परिणति हो जाएगी, तब तुम्हें अपने घट के अन्दर ही परमात्म-ज्योति का साक्षात्कार हो जाएगा । सम्यक् दर्शन आत्मा में स्वरूप की ज्योति का दर्शन कराता है, तथा आत्मा को जागृत करके अन्धकार से प्रकाश में लाता है । निश्चय ही यदि जीवन में सम्यक् दर्शन की ज्योति जग गई तो फिर कभी न कभी, यह आत्मा परमात्मा बन सकता है, यह जीव ब्रह्म बन सकता है। जैसे अपने से fra किसी दूसरी आत्मा को नीचे समझना पाप है, उसी प्रकार अपनी स्वयं की आत्मा को भी नीच समझना पाप है, अतएव साधक को चाहिए कि वह न कभी दूसरे के अन्दर रावण को देखे और न अपने स्वयं के अन्दर ही रावण का दर्शन करे। अपने में और दूसरों में सदा सर्वदा राम के ही दर्शन करना चाहिए । यही सम्यक् दर्शन है । सम्यक् दर्शन में अपने अन्दर और बाहर में सर्वत्र विराट चैतन्य शक्ति का ही महा सागर लहराता दृष्टिगोचर होता है, यही हमारी साधना का एकमात्र ध्येय है । भारत का अध्यात्मवादी दर्शन एक महत्वपूर्ण बात कहता है, कि भगवान कहीं अन्यत्र नहीं है । हर चैतन्य भगवान का रूप है । अतः अपने अन्दर एवं दूसरों के अन्दर भगवान का दर्शन करो और इसका ध्यान रखो, कि इस देह के अन्दर रहने वाले भगवान का कहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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