________________
११२ / अध्यात्म-प्रवचन
रहा, इस प्रकार दोनों ने समन्वय करके अपने जीवन की रक्षा कर ली । अध्यात्म-शास्त्र में इसको 'अंध-पंगु न्याय कहते हैं।
अध्यात्म-साधना के सम्बन्ध में भी इसी समन्वय और संतुलन की आवश्यकता है। कर्म अन्धा है, वह देख नहीं सकता और ज्ञान, जिसमें भक्ति भी सम्मिलित है, पंगु है, वह चल नहीं सकता और एक विद्वान के शब्दों में, भक्ति अन्धी भी है और बहरी भी है। न वह कुछ देख पाती है और न वह कुछ सुन ही पाती है । यदि भक्ति, ज्ञान
और कर्म एक दूसरे को निरर्थक और अर्थहीन कहते रहेंगे, तो उनमें समन्वय नहीं हो सकेगा। यदि उनमें सन्तुलन नहीं होता है, तो साधक अपने अभीष्ट की सिद्धि भी नहीं कर सकता। यदि किसी साधक के जीवन में विश्वास तो हो, किन्तु उस विश्वास के अच्छेपन
और बुरेपन को परखने के लिए विचार न हो, और यदि किसी के पास विचार का प्रकाश तो हो, अपने गन्तव्य पथ को देखने की शक्ति तो हो, परन्तु उसके पास उस पर चलने की शक्ति नहीं है, तब वह सुदूर में स्थित अपने लक्ष्य पर कैसे पहुँचेगा? अतः मैं यह कहता हूँ कि भक्ति अपने आप में बुरी नहीं है, ज्ञान अपने आप में बुरा नहीं है,
और कर्म भी अपने आप में बुरा नहीं है, किन्तु उन सबके मध्य में जो एकान्तवाद है, वही बुरा है। यदि यह एकान्तवाद अनेकान्तवाद में परिणत हो जाए, तो साध्य की सिद्धि में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होगी । भक्ति-योग का अर्थ है-'सम्यक् दर्शन एवं श्रद्धा ।' ज्ञान-योग का अर्थ है-'सम्यक् ज्ञान एवं विवेक ।' कर्म-योग का अर्थ है-'सम्यक चारित्र एवं आचार ।' शब्दों में कुछ भेद होने पर भी गम्भीर विचार करने पर उनमें एकात्मता का परिबोध होता है । इन तीनों के सुन्दर समन्वय से ही जीवन सुन्दर, मधुर और रुचिकर बन सकता है । जीवन-विकास के लिए तीनों ही परमावश्यक हैं । विश्वास को विचार बनने दीजिए और विचार को आचार बनने दीजिए । इसी प्रकार आचार, विचार में प्रतिबिम्बित हो और विचार विश्वास में प्रतिबिम्बित हो । मधु के माधुर्य का परिबोध केवल यह कहने भर से नहीं हो सकता, कि मधु मधुर होता है। उसके माधुर्य का परिबोध तभी होगा जबकि एक बिन्दु मधु रसना पर डाला जाएगा । उस समय किसी को यह विश्वास दिलाने की आवश्यकता न रहेगी, कि मधु मीठा होता है । अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में विश्वास की मधुरता की और ज्ञान की उज्ज्वलता की अनुभूति तभी हो सकती है, जबकि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org