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अध्यात्मवाद का आधार | १२१ विवाह कर लो । परन्तु व्यर्थ में परेशान एवं हैरान होने की जरूरत क्या है ।" ___ स्त्री-वियोगी व्यक्ति ने अपने मित्र से कहा-"बात तुम्हारी ठीक है। यह सब कुछ मैं समझता है । मेरे दुःख का कारण मेरी स्त्री नहीं है । मेरे दुःख का कारण है, उसमें मेरी ममत्व-बुद्धि । जिसमें जिस व्यक्ति का ममत्व होता है, उसके वियोग में उसे दुःख होता है । किसी भी व्यक्ति को न किसी के जन्म पर हर्ष होता है और न किसी की मृत्यु पर विषाद होता है। जिस वस्तु में मन की प्रीति होती है, जिस वस्तु में मन की रति होती है और जिस वस्तु में मन की अनुरक्ति होती है, वस्तुतः उसी वस्तु के संयोग में सुख और वियोग में दुःख एवं विषाद हआ करता है। जब तक संसार के किसी भी पदार्थ के प्रति मन में अनुरक्ति बनी हुई है, तब तक विरक्ति नहीं हो सकती। और जब तक विरक्ति नहीं होगी, तब तक आत्मा की कर्मों से विभक्ति भी नहीं हो सकती ।'
वियोगी व्यक्ति का कथन सही है । परन्तु यदि वह बौद्धिक न होकर अन्तर्मन की गहराई में उतरा होता तो उसे कुछ भी परेशानी न होती । अस्तु निश्चित है कि दुःख का कारण और कुछ नहीं, मनुष्य के मन का ममत्व भाव ही है। यह ममत्व-भाव चाहे किसी जड़ पदार्थ में हो, अथवा किसी चेतन में, दुःख का मूल कारण यह ममत्वभाव ही है। जब ममत्व-भाव हट गया, तो वस्तु के रहने अथवा न रहने से हमें सुख और दुःख भी नहीं होते। चक्रवर्ती के पास कितना विशाल वैभव होता है, किन्तु जब उसके हृदय में निर्मल वैराग्य का उदय होता है, तब क्षण भर में ही वह उसे छोड़ देता है। विशाल साम्राज्य को छोड़ने पर उसे जरा भी दुःख एवं क्लेश महों होता, क्योंकि दुःख एवं क्लेश का मूल कारण ममत्व-भाव है, और ममत्वभाव का उसने परित्याग कर दिया है।
मैं आपसे कह रहा था कि आत्मा का बन्धन और आत्मा का मोक्ष कहीं बाहर में नहीं, हमारे अन्दर की भावना में ही रहता है। बड़ी विचित्र बात है, कि मनुष्य अन्य सब कुछ समझ लेता है, किन्तु अपने आपको नहीं समझ पाता । जिसने अपने को पहचान लिया, उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया । आत्मा में परमात्मा होने की शक्ति है, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता, परन्तु आवश्यकता है
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