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१२२ | अध्यात्म-प्रवचन
पर के आवरण को हटाकर अपने निज स्वरूप को जानने की कल्पना कीजिए, किसी सरोवर में जल भरा हेआ है । अन्दर में जल स्वच्छ एवं निर्मल है, परन्तु उसके ऊपर काई आ चुकी है । ऊपर काई जम जाने के कारण जल मलिन दीखता है, परन्तु जब काई दूर हो जाती है, तब जल स्वच्छ का स्वच्छ हो जाता है । उसकी स्वच्छता कहीं बाहर नहीं थी, वह अन्दर में ही थी, पर काई आ जाने से उसकी स्वच्छता का दर्शन नहीं हो पाता था । वायु के वेग से जब काई छँट कर एक तरफ हो गई, तब सरोवर के स्वच्छ जल को प्रतीति होने लगी । इसी प्रकार आत्मा स्वच्छ एवं पावन है, परन्तु राग एवं द्व ेष की काई से मलिन बन गया है । राग और द्वेष नष्ट होते ही उसकी स्वच्छता प्रकट हो जाती है । वस्त्र जब मलिन हो जाता है, तब सोडा और साबुन लगा कर उसे स्वच्छ बना लिया जाता है । वस्त्र की स्वच्छता कहीं बाहर से नहीं आई, वह उसके अन्दर ही थी, पर मल के कारण प्रकट नहीं हो पा रही थी । मल के दूर होते ही वह प्रकट हो गई। इसी प्रकार जब तक आत्मा पर राग एवं द्वेष का मल लगा हुआ है, तभी तक वह अस्वच्छ एवं अपावन प्रतीत होती है, परन्तु मल के हटते ही उसकी स्वाभाविक स्वच्छता प्रकट हो जाती है । राग क्या है ? प्रीति रूप परिणाम का होना राग है । द्वेष क्या है ? अप्रीति रूप परिणाम का होना द्वेष है । संसार का मूल कारण यह राग और द्वेष ही है । यह राग और द्वेष क्षय होते ही आत्मा को मोक्ष एवं अपवर्ग की शाश्वत स्थिति प्राप्त हो जाती है !
मैं अभी आपसे आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में चर्चा कर रहा था । आत्मा का शुद्ध स्वरूप क्या है ? यह समझना उतना आसान नहीं है, जितना आसान इसे समझ लिया गया है। आत्मा की चर्चा करना आसान है, परन्तु आत्मा को समझना बड़ा कठिन है । जब तक आत्मा में रागरहित प्रीति न हो, जब तक आत्मा में अनुरागरहित अनुरक्ति न हो और जब तक पर पदार्थों से द्वेष-रहित स्वस्वभावरूप विरक्ति एवं विभक्ति न हो, तब तक आत्मा को कैसे समझा जा सकता है । अध्यात्मवाद की चन्द पोथियों के पन्ने उलटने मात्र से कोई अध्यात्मवादी नहीं हो सकता । सार्वजनिक सभा में किसी ऊँचे मंच पर चढ़कर जोरदार भाषा में आकर्षक शैली में आत्मा पर भाषण देने मात्र से ही, कोई अध्यात्मवादी नहीं बन सकता । शास्त्रार्थ के अखाड़े में उतर कर अपने तर्क-जाल से किसी
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