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________________ १२० । अध्यात्म-प्रवचन और बिगाड़ते रहते हैं, उसी प्रकार आत्मा ने ही यह संसार बनाया है और आत्मा ही इस संसार का अन्त भी कर सकता है। आत्मा नाना प्रकार के मनोरथ करता है, परन्तु इन मनोरथों का कभी अन्त नहीं होता। संकल्प और विकल्प के खेल, रात और दिन हमारे मन के मैदान में होते रहते हैं। इन खेलों को बनाने वाले भी हम हैं और इन खेलों को बिगाड़ने वाले भी हम स्वयं ही हैं। मोह-बुद्धि समस्त पापों की जड़ है। मोह-बुद्धि को तोड़ने के लिए ही साधना की जाती है । यह निश्चय है कि ममत्व-बुद्धि एवं मोह-बुद्धि के कारण ही, हमें पर पदार्थों में सुख एवं दुःख की प्रतीति होती है । पर पदार्थ में दुःख और सुख की प्रतीति भ्रान्तिरूप है । सुख दुःख के प्रश्न का एक ही समाधान है कि-दुःख एवं सुख किसी पदार्थ विशेष में नहीं होते, वे होते हैं ममत्व-भाव में । अतः ममत्व-भाव ही समस्त सांसारिक सुखदुःखों का मूल केन्द्र है । सांसारिक सुख भी मूलरूपतः दुःख ही है। पर पदार्थ में ममत्व होने से दुःख कैसे होता है ? इस सम्बन्ध में मुझे एक कथानक का स्मरण हो आया है। एक बार एक व्यक्ति किसी कार्यवश विदेश में गया था, वहाँ वह कुछ दिनों तक रहा। यद्यपि वह अपने देश शीघ्र ही लोटना चाहता था, परन्तु प्रयोजनवश वह शीघ्र नहीं लौट सका । विदेश में रहते हुए भी उसका मन सदा अपने घर में ही लगा रहता था। घर से दूर रहने पर भी वह घर को भूल नहीं सका । यह सब उसकी मोह-बुद्धि का खेल था। एक बार उसे घर से समाचार मिला कि उसकी पत्नी का देहान्त हो गया है। पत्नी के वियोग को वह सहन नहीं कर सका। विलाप करने लगा, उसने खाना पीना सब कुछ छोड़ दिया। वह शोक-विह्वल हो गया। न किसी से बात करता, न किसी से बोलता और न किसी कार्य के करने में ही उसका मन लगता था। उसकी इस विचित्र स्थिति को देखकर, उसके मित्र ने कहा "स्त्री के वियोग से इतने अधीर क्यों बनते हो? मरना और जीना, क्या किसी के हाथ की बात है ? जो जन्मा है वह एक दिन मरेगा भी अवश्य ही। जन्म के बाद मरण और मरण के बाद जन्म, यह तो एक संसार-चक्र है, चलता रहा है और चलता रहेगा । जन्ममरण के चक्र को कौन कैसे मिटा सकता है ? यदि स्त्री का वियोग असह्य है और स्त्री के बिना तुम नहीं रह सकते हो, तो दूसरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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