________________
उपादान और निमित्त | २३६ आता है, वह उसे बाहर निकालकर फेंक देता है । कर्म पुद्गलों को भी अन्दर आते ही भोगकर वह उन्हें बाहर फेंकना आरम्भ कर देता है । आप देखते हैं कि जब तक शरीर सशक्त एव स्वस्थ रहता है तब तक वह विकार को बाहर फेंकता रहता है और रोग का आक्रमण होने पर जब शरीर दुर्बल एव अस्वस्थ हो जाता है, तब भी वह अपनी शक्ति के अनुसार रोग एवं विकार को बाहर फेंकने का ही काम चालू रखता है । बुखार आदि के रूप में जो रोग बाहर प्रकट होते हैं वे बाह्य लक्षण स्वयं रोग नहीं होते, वे तो अन्दर के रोग को बाहर में व्यक्त करने का एक लक्षण होता है । मैं अपने जीवन की एक बात आपसे कहे। एक बार मैं बहत अधिक अस्वस्थ हो गया था। शरीर की स्थिति इस प्रकार की हो चुकी थी, कि उसने अपनी सारी प्रकिया शिथिल एवं मन्द कर दी थी। जीवन के चिन्हस्वरूप सांस चलते रहने पर भी, ऐसा प्रतीत होता था, मानों मृत्यु की गोद में पहुँच गया होऊँ । जो कुछ भी दवा मुझे खाने व पीने को दी जाती थी, अन्दर की उछाल उसे बाहर फेंक देती थी। बहुत कुछ उपचार हुआ, किन्तु स्थिति नहीं सुधरी, बल्कि और अधिक बिगड़ती ही गई। सब हैरान और परेशान थे । स्वयं डाक्टरों के विचार में भी कुछ नहीं आ रहा था कि अब वे क्या करें ? श्रावकों और साधुओं को भी मेरे जीवन की विशेष आशा न रही थी। परन्तु संयोग की बात है, कि एक दूसरी श्रेणी का डाक्टर आया। उसने शरीर का परीक्षण किया, स्थिति को बारीकी से देखा और कुछ सोचकर बोला-जितनी भी खाने-पीने की दवाएँ दी जा रही हैं, सब एक दम बन्द कर दो, क्योंकि अभी शरीर में ऐसी प्रक्रिया चल रही है, जो बाहर की हर वस्तु को अन्दर नहीं जाने देती, बाहर फेंक देती है । अभी अन्दर में शरीर की प्रक्रिया बाहर फेंकने की चल रही है और जब तक यह क्रिया चलती रहेगी बाहर की किसी भी प्रकार की दवा अन्दर पहुँचकर भी अन्दर नहीं रह सकेगी, अतः उपचार का सबसे पहला कदम यह है कि मुख से खाने या पीने की सभी दवाओं को एक दम बन्द कर दिया जाए। और आप आश्चर्य करेंगे कि इस प्रक्रिया से मुझे काफी लाभ
हुआ।
. जो बात मैं आपसे अपने जीवन की अनुभूति के विषय में कह रहा था और जो बात मैं अपने शरीर के सम्बन्ध में कह रहा था,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org