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________________ २३८ | अध्यात्म-प्रवचन कोई बात नहीं है, एक मात्र नियति एवं भवितव्यता ही संतोषजनक सही समाधान प्रस्तुत करती है। ____ अब अध्यात्मिक जीवन का निरीक्षण करें, तो वहाँ पर भी हमें इसी शक्ति का दर्शन होता है । एक मिथ्यादृष्टि की आत्मा में अशुद्धि का भयंकर रोग लगा हुआ है । गुरु का निमित्त पाकर, शास्त्र-स्वाध्याय, जप एवं तप करके वह मिथ्यादष्टि आत्मा अपनी अशुद्धता के रोग को आत्मा से बाहर निकालने का प्रयत्न करता है, किन्तु फिर भी उसमें सफलता नहीं मिलती । इसके विपरीत एक आत्मा ऐसा है, कि जिसे कोई बाह्य निमित्त नहीं मिला, किन्तु फिर भी उसका मिथ्यात्व रूप अशुद्धि का रोग सहसा दूर हो गया और उसके स्थान में उसकी आत्मा में सम्यक्दर्शन का दिव्य स्वास्थ्यभाव प्रकट हो गया। यह सब आत्माओं की अपनी-अपनी नियति का खेल है, किसी की नियति में बाह्य निमित्त के आधार पर सम्यकदर्शन होना बदा है, तो किसी की नियति में निमित्त मिलने पर भी सम्यक्दर्शन होना नहीं बदा है । और किसी की नियति में अमुक देश और काल में बिना किसी बाह्य निमित्त के सहज ही सम्यक्दर्शन की ज्योति का प्रकाश निश्चित है। आपने जम्बू द्वीप के वर्णन में उन्मग्नजला और निमग्नजला नाम की नदियों का वर्णन पढ़ा होगा अथवा सुना होगा । उन्मग्नजला नदी का यह स्वभाव है, कि उसमें जो भी वस्तु पड़ जाती है, वह उस वस्तु को उछालकर बाहर फेंक देती है, वह किसी भी वस्तु को अपने अन्दर नहीं रहने देती है। परन्तु इसके विपरीत निमग्नजला नदी का स्वभाव यह है, कि उसमें जो भी वस्तु पड़ जाती है, वह उस वस्तु को अपने अन्दर ही रख लेती है, बाहर नहीं फेंकती । अध्यात्म दृष्टि से विचार किया जाए, तो सम्यक् दृष्टि आत्मा का स्वभाव उन्मग्नलजा नदी के समान होता है । उसकी आत्मा में जब कभी रागात्मक एवं द्वषात्मक विकल्प उठता है, तो वह उसे बाहर फेंक देता है, अपने अन्दर नहीं रहने देता। किन्तु मिथ्या दृष्टि आत्मा का स्वभाव निमग्नजला नदी के समान होता है, जो अपने रागात्मक एवं द्वषात्मक विकल्पों को अपने अन्दर ही रख लेता है, बाहर नहीं फेंकता। अध्यात्मशास्त्र में कहा गया है, कि आत्मा का मूल स्वभाव तो उन्मग्नजला नदी के समान है। ज्यों ही कोई विकार उसमें अन्दर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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