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________________ ३८ / अध्यात्म-प्रवचन आत्मा की उच्चतम एवं पवित्रतम स्थिति की सिद्धि, सिद्धत्व, अपुनावृत्ति, मुक्ति, निर्वाण तथा मोक्ष-इत्यादि विविध संज्ञाओं से कहा गया है। इस सम्बन्ध में अध्यात्मवादी दर्शन में सबसे बड़ा प्रश्न यह है, कि मोक्ष एवं मुक्ति आत्मा का स्थान-विशेष है अथवा आत्मा की स्थितिविशेष है ? सिद्ध-शिला और सिद्ध-लोक जैसे शब्द स्थान-विशेष की ओर संकेत करते हैं । तब क्या यह माना जाए कि कर्म-विमुक्त आत्मा का भी, अपना कोई रहने का स्थान है, जहां वह शाश्वत रूप में अनंत काल तक आवास करता रहता है। व्यवहार नय से यह कथन सत्य है, इसमें किसी प्रकार का भेद एवं विभेद नहीं है। परन्तु निश्चयनय से विचार करने पर मोक्ष आत्मा का स्थान नहीं, बल्कि एक स्थितिविशेष ही है । मोक्ष और उसका मार्ग, साध्य और उसका साधन, क्या अलग-अलग हो सकते हैं ? निश्चय नय की दृष्टि से साधन और साध्य में किसी प्रकार का भेद स्वीकार नहीं किया जा सकता। अध्यात्मवादी दर्शन में मोक्ष और उसके मार्ग में किसी प्रकार का भेद नहीं किया जा सकता। मार्ग की, साधना की पूर्णता का नाम ही मोक्ष है । उक्त अभेद दृष्टि के अनुसार मोक्ष किसी क्षेत्र अथवा आकाश-विशेष में नहीं होता है, वह तो आत्मा में ही होता है। जहाँ आत्मा है, वहीं उसका मोक्ष है । आत्मा कहीं-न-कहीं रहेगा ही । और वह आत्मा के ठहरने का स्थान है, क्योंकि आत्मा एक द्रव्य है, और जो द्रव्य होता है, वह कहीं-न-कहीं रहेगा ही, आकाश के किसी-नकिसी देश-विशेष का अवगाहन करेगा ही। यह सम्भव नहीं है, कि आत्मा द्रव्य होकर भी किसी आकाशीय देश-विशेष का अवगाहन करता है, तब आत्मा भी एक द्रव्य होने के कारण अनन्त आकाश के किसी-न-किसी असंख्यात प्रदेशात्मक देश-विशेष का अवगाहन अवश्य ही करेगा । आत्मा-द्रव्य जिस किसी भी आकाश-देश में स्थित है, वही उसका स्थान है और वही उसका धाम है। परन्तु ध्यान रखिए आत्मा एक द्रव्य हैं, इसी आधार पर उसका एक स्थान-विशेष भी है। किन्तु मोक्ष द्रव्य नहीं है, वह आत्मा का निज-स्वरूप है । अतएव मोक्ष आत्मा का स्थान-विशेष नहीं है, बल्कि मोक्ष आत्मा की स्थितिविशेष है । जिस द्रव्य का जो स्वरूप है, वह स्वरूप अपने आधारभूत द्रव्य से अलग कैसे हो सकता है ? आत्मा पृथक रहे और उसका स्वरूप मोक्ष उससे कहीं दूर अन्य जड़ द्रव्य में अटका रहे-यह सम्भव नहीं है, न यह शास्त्र-सम्मत है और न यह अनुभव-गम्य ही है। इसी आधार पर मैं आपसे यह कह रहा था, कि जहाँ आत्मा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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