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________________ संसार और मोक्ष | ३१६ नहीं खरीदता है ? यदि कोई व्यक्ति वस्तु खरीद लेता है तो वह उसे लेनी होगी, और उसकी कीमत चुकानी होगी। यदि कोई बाजार में से तटस्थ दर्शक के रूप में गुजरता है, कुछ भी नहीं खरीदता है, तो उसे दुकान की किसी वस्तु को लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है, और न मूल्य चुकाने के लिए ही कोई दबाब डाला जा सकता है । संसार के बाजार में भी सभी कुछ है, वहाँ विष भी है और अमृत भी है। वहाँ सुख भी है ओर दुःख भी है। वहाँ स्वर्ग भी है और नरक भी है। यदि आपकी दृष्टि कुछ भी खरीदने की नहीं है, मात्र दर्शक ही हैं आप, तब तो समस्त बाजार में से पार होकर भी आप किसी वस्तु को लेने के लिए बाध्य न होंगे। बाजार की वस्तु उसी के चिपकती है, जो उसे खरीदता है। जो व्यक्ति कुछ खरीदता ही नहीं, उस व्यक्ति के साथ कोई भी वस्तु उसकी इच्छा के विरुद्ध चिपक नहीं सकती। यदि आप संसार रूप बाजार की यात्रा खरीददार बनकर कर रहे हैं, संसार की वस्तुओं के साथ रागात्मक या द्वषात्मक भाव रख रहे हैं, तो तन्निमित्तक कर्म आपके साथ अवश्य चिपक जाएगा। इसके विपरीत यदि आप संसार रूप बाजार की यात्रा केवल एक दर्शक के रूप में कर रहे हैं, रागद्वेष का भाव नहीं रख रहे हैं, तो एक भी कर्म आपके साथ सम्बद्ध न हो सकेगा। इसीलिए मैं कहता है कि आप संसार के बाजार की यात्रा एक दर्शक के रूप में कीजिए खरीददार बनकर नहीं। यदि एक बार भी कहीं कुछ खरीदा, राग द्वष का भाव किया, तो समस्या ही खड़ी हो जाएगी। राग और द्वेष के वशीभूत होकर ही यह आत्मा अच्छे एवं बुरे कर्मों का उपार्जन करता है, जिसका सुख दुःखात्मक फल उसे भोगना पड़ता है। यहां पर मुझे एक पठान की कहानी याद आ रही है, जो हास्यात्मक होकर भी मानव जीवन के एक गहन मर्म को प्रकाशित करती है। घटना इस प्रकार है, कि काबुली पठान को एक बार कहीं दिल्ली जैसे शहर में सोहन हलुवा खाने को मिला। उसने अपने जीवन में यह पहली बार खाया था। सोहन हलुवा पठान को बहुत हो रुचिकर और प्रिय लगा । उसने उस व्यक्ति की बड़ी प्रशंसा की, जिसने उसे सोहन हलुवा खिलाया था। पठान ने विदा लेते समय बहुत ही कृतज्ञता व्यक्त की और कहा, कि आपने मुझे एक ऐसी सुन्दर वस्तु खिलाई है, जिसे मैं अपने जीवन में नहीं भूल सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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