________________
सम्यक् दर्शन के भेद | २११ है, उससे अधिक वह नवीन बन्ध कर लेता है । संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करने के बाद भी, वह कर्म-बन्ध का प्रवाह बना रहता है । यह ठीक है कि कर्मोदय पूर्वकृत कर्म को भोगकर पूरा करने के लिए होता है, परन्तु कितनी विचित्र बात है, कि असावधान आत्मा पूर्वकृत कर्म के सुखात्मक भोग से तो प्रसन्न होता है, और उसके दुःखात्मक भोग से भयभीत, हैरान एवं परेशान हो जाता है । मिथ्यादृष्टि आत्मा कर्मों के सुखात्मक भोग में आसक्त हो जाता है और कर्मों के दुःखात्मक भोग से व्याकुल हो जाता है । इस प्रकार बन्ध की जटिल प्रक्रिया समाप्त नहीं होती । सम्यक् दृष्टि आत्मा की दशा इससे भिन्न होती है । वह अपने सुखात्मक एवं दुःखात्मक भोग में अपने मन एवं मस्तिष्क के संतुलन को बिगड़ने नहीं देता है । दोनों ही प्रकार के भोग में वह अपने समत्व योग को स्थिर रखता है । सम्यक् दृष्टि आत्मा यह सोचता है, कि यदि कर्म विपाक का समय आ गया है, तो यह अच्छा ही है । क्योंकि समभाव से भोगकर वह कर्म क्षीण हो जाएगा। जब उदय आ गया है, तो अब भोगकर ही उसे पूरा करना ठीक है । विवेकशील आत्मा यह सोचता है, कि अपने पूर्वकृत कर्मों को समभाव से भोगकर ही मैं शान्ति पा सकूंगा । इस प्रकार सम्यक् दृष्टि आत्मा न दुःख के समय विचलित होता है, और म सुख के समय । सुख-दुःख के भोगकाल में यदि पूर्ण तटस्थता रहती हैं, तो कर्मबन्ध नहीं होता है, यदि पूर्ण तटस्थता नहीं रहती है, तब भी विवेकी आत्मा को अल्प ही कर्मबन्ध होता है ।
।
कर्मोदय का विकट प्रसंग आने पर विचार करना चाहिए कि आज तो मुझे मनुष्य जीवन मिला है, आज तो मुझे परिवार की अनुकूल स्थिति मिली है, आज तो मुझे अनेक प्रकार की सुख सुविधाएँ उपलब्ध हैं, आज तो मुझे इतना विवेक मिला है, कि मैं अपना हित एवं अहित भली-भांति सोच सकता हूँ । यदि इस प्रकार के अनुकूल और सुन्दर प्रसंग मिलने पर भी समभाव के साथ मैं अपने कर्मों को भोग करके क्षीण नहीं कर सका, तब फिर कब करूंगा ? क्या उस पशु और पक्षी के जीवन में, जहाँ विवेक का लवलेश भी नहीं रहता । क्या उस क्षुद्र कीटपतंग के जीवन में, जहाँ अन्धकार ही अन्धकार है, कहीं पर प्रकाश की एक क्षीण रेखा भी दृष्टिगोचर नहीं होती । क्या नरक में, जहाँ दुःख भोग से क्षण भर का भी अवकाश नहीं मिल पाता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org