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________________ २१२ | अध्यात्म-प्रवचन है। क्या उस स्वर्ग में, जहाँ सुख-भोगों के मोहक जाल में आत्मा अपना भान ही भूल जाता है। वस्तुतः मनुष्य जीवन ही एक ऐसा शानदार जीवन है, जहाँ अपने पूर्वकृत कर्मों से लड़ा जा सकता है और नवीन कर्मों के प्रवाह को रोका जा सकता है। यदि यहाँ कुछ नहीं किया, तो फिर सर्वत्र अन्धकार ही अन्धकार है । सुख और दुःख के बादल तो जीवन-गगन पर यथा क्रम आते और जाते ही रहते हैं। इनके अनुकूल और प्रतिकूल भावों में फंसकर मैं अपने स्वरूप को क्यों भूलूं ? इसी मानव-जीवन में मैं अपने कर्मों से लड़कर विजय प्राप्त कर सकता हूँ। याद रखो, आने वाले कर्म को रोको मत, उसे अपने जीवन क्षेत्र में स्वछन्दता के साथ प्रवेश करने दो, फिर भले ही आने वाला कर्म चाहे सूखात्मक हो अथवा दुःखात्मक हो। उसे रोकने या टोकने की कोशिश मत कीजिए। बस, इतना ध्यान अवश्य रखिए, कि सुख या दुःख के प्रति अपने मन में रागात्मक एवं द्वषात्मक विकल्प न उठे । यदि राग और द्वेष आ गया, तो स्थिति बड़ी विषम हो जाएगी । यह एक ऐसी स्थिति होगी, कि पूर्वकृत कर्म को भोगकर अपने को पवित्र नहीं किया गया और उससे अधिक नवीन कर्म आकर जमा हो गया। राग-द्वेष रूप विकल्पों के करने से आने वाले कर्मों को रोका नहीं जा सकता । और आने पर उनका सुख-दुःखात्मक भाग भी अवश्य होगा ही। हाँ यह बात दूसरी है कि हम अपने विवेक को जागृत रखकर अपने मन में रागात्मक एवं द्वषात्मक विकल्प उत्पन्न ही न होने दें, यह हमारे अपने हाथ की बात है । परन्तु कर्मप्रवाह के आ जाने पर उसके फल से बच सकना, निश्चय ही अपने हाथ की बात नहीं है । परन्तु जैन दर्शन एक आशावादी दर्शन है, इसी आधार पर वह कहता है, कि कृत कर्मों के भोग से बचा तो नहीं जा सकता, किन्तु यह निश्चित है, कि अपने रागात्मक एवं द्वषात्मक विकल्पों को मन्द एवं क्षीण करके दीर्घ स्थिति को अल्प स्थिति में और तीव्र रस को मन्द रस में बदला जा सकता है, क्योंकि जैन-दर्शन के अनुसार बन्धन की स्थिति में भी आत्मा पुरुषार्थ करने में स्वतन्त्र है । अपने उस पुरुषार्थ से वह आत्मा अनुकूलात्मक और प्रतिकूलात्मक दोनों ही प्रकार का पुरुषार्थ करने में स्वाधीन है।। बद्ध कर्म का उदय भाव अवश्य आएगा, उसे किसी भी स्थिति में कोई भी टालने की क्षमता नहीं रखता है। कर्मों का उदय होगा ही, क्योंकि वह अवश्यंभावी है। संसार की साधारण आत्मा की बात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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