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उपादान और निमित्त | २२७
भी जो सम्यक् दर्शन की ज्योति प्रकट होती है, उसे निसर्गज सम्यक् दर्शन कहा गया है । बाहर में भले ही उसके कारण की प्रतीति न हो । किन्तु अन्तरंग में तो कोई कारण अवश्य होना चाहिए। क्योंकि बिना कारण के कोई कार्य होता ही नहीं है । जो भी स्थिति है, वह सहेतुक है, अहेतुक नहीं। और तो क्या, जीव क्यों है और अजीव क्यों है ? इस प्रश्न का भी सहेतुकता के रूप में ही समाधान किया गया है और कहा गया है कि-जीव इसलिए जीव है, क्योंकि उसमें जीवत्व गुण है और अजीव इसलिए अजीव है, क्योंकि उसमें अजीवत्व गुण है । यदि जीव में जीवत्व गुण न हो, तो वह कभी अजीव भी बन सकता है । और अजीव में यदि अजीवत्व गुण न हो, तो वह कभी जीव भी बन सकता है । परन्तु जीव का जीवत्व जीव को कभी अजीव नहीं बनने देता । और अजीव का अजीवत्व कभी अजीव को जीव नहीं बनने देता । अग्नि का कारण उसका दाहकत्व गुण ही है । यदि अग्नि में दाहकत्व गुण न हो, तो अग्नि, अग्नि नहीं रह सकती । इस प्रकार हमारी बुद्धि जहाँ तक दौड़ लगा सकती है, वह हर कार्य के पीछे उसके कारण को पकड़ लेती है ।
प्रश्न होता है कि जिस सम्यक् दर्शन को निसर्गज सम्यक् दर्शन कहा जाता है, उसका तो कोई कारण नहीं होना चाहिए। क्योंकि निसर्गज शब्द का अर्थ है - वह वस्तु अथवा वह तत्व जो अपने स्वभाव से, जो अपने परिणाम से अथवा जो सहज से ही उत्पन्न हो जाता है । फिर उसमें कारण मानने की क्या आवश्यकता है ? उक्त प्रश्न के समाधान में यही कहना है, कि निसर्गज सम्यक् दर्शन स्वाभाविक अवश्य होता है, किन्तु बिना कारण के नहीं होता । यहाँ पर सम्यक्दर्शन को निसर्गज कहने का अभिप्राय केवल इतना ही है, कि जिस किसी भी आत्मा को, जिस किसी भी काल में और जिस किसी भी क्षण में सम्यक् दर्शन की उपलब्धि होती है, वहां पर उस समय उपदेश एवं स्वाध्याय आदि कोई बाह्य निमित्त नहीं होता । बाह्य निमित्तों के अभाव में भी जब किसी को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जाती है, तब वह निसर्गज सम्यक् दर्शन कहलाता है । भले ही उसका बाह्य निमित्त न रहे, किन्तु अन्तरंग निमित्त और आभ्यंतर कारण तो अवश्य ही रहता है । अन्तरंग में जब तक दर्शन मोहनीय कर्म का आवरण रहता है, सम्यक् दर्शन नहीं हो सकता । अन्तरंग
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