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________________ ३५२ | अध्यात्म प्रवचन सम्यक् दृष्टि आत्मा विचलित एवं व्याकुल नहीं होता है। आप पूछ सकते हैं, कि अनिष्ट-संयोग का क्या तात्पर्य है ? इस सम्बन्ध में मेरा यही कहना है, कि इस संसार में जितनी भी अनिष्ट वस्तुएं हैं, चाहे वे चेतन हो, चाहे अचेतन हों, उनकी प्राप्ति ही अनिष्ट-संयोग है। कल्पना कीजिए, एक पिता का पुत्र कपूत है, उद्धत है और अविनीत है । पिता उसे अपने घर में देखना नहीं चाहता, किन्तु फिर भी पिता की इच्छा के विरुद्ध वह पुत्र उसके घर में रहता है, यह अनिष्ट संयोग है । कल्पना कीजिए, कि घर में पति-पत्नी के विचार नहीं मिलते हैं। कभी-कभी इस प्रकार की स्थिति आ जाती है, कि मास पर मास निकलते जाते हैं और वे दीनों एक दूसरे से नहीं बोलते । बोलना तो दूर रहा, वे एक दूसरे को देखना भी पसन्द नहीं करते, किन्तु फिर भी उन्हें एक ही घर में रहना पड़ता है। यह भी एक प्रकार का अनिष्ट संयोग ही है । कल्पना कीजिए, भयंकर गर्मी का समय है, आपको प्यास लगी है। उस समय आपके हृदय में अभिलाषा है कि कहीं शीतल और मधुर जल मिल जाए, किन्तु इसके विपरीत आपको मिलता है, गरम और खारा जल जो आपको इष्ट नहीं है। यह भी एक प्रकार का अनिष्ट संयोग है। आपके हृदय में यह अभिलाषा रहती है, कि मुझे खाने के लिए अमुक वस्तु मिले, किन्तु संयोगवश उसके विपरीत ही आपको दूसरी वस्तु मिलती है, किन्तु अपनी तीव्र भूख को शान्त करने के लिए आपको वह ही खाना पड़ता है यह भी एक प्रकार का अनिष्ट संयोग ही है। इस प्रकार के अनिष्ट सयोगों में भी सम्यक् दृष्टि आत्मा स्थिर रहता है । घृणा और बैर के विकल्पों में उलझकर अपने को पथभ्रष्ट नहीं करता है। परलोकभय का अर्थ है-अपने से भिन्न विजातीय किसी पशु एवं देव आदि से प्राप्त होने वाला भय । सम्यग् दृष्टि विचारता है कि दूसरा कोई किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकता । दूसरा दूसरे का कर्ताधर्ता कैसे हो सकता है ? जो कुछ मुझे दूसरे से मिल रहा है, वह मेरा किया हुआ ही मुझे मिल रहा है । इस प्रकार वह दूसरों से घृणा नहीं करता । परलोक भय का अर्थ, दूसरे लोक का भय भी किया जाता है। इसका अर्थ है-दूसरे लोक में उपलब्ध होने वाले सुख एवं दुख की चिन्ता करना। परन्तु जिसका जीवन पवित्र एवं निर्भीक है, उसे परलोक का भय नहीं सताता । सम्यक् दृष्टि आत्मा के कर्तव्य-मार्ग में परलोक का भय बाधक नहीं बन सकता । सम्यक् दृष्टि को अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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