SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुक्ति का मार्ग | ३१ स्थिर कर लिया है, यह सब कुछ तो ठीक है-परन्तु यदि उसे यह मालूम न हो कि मुक्ति का साधन और उपाय क्या है, तब उसके सामने एक बड़ी विकट समस्या आ जाती है । साधक के जीवन में इस प्रकार की स्थिति बड़ो विचित्र और बड़ी विकट होती है । जो अकुशल नाविक नाव में बैठकर किसी विशाल नदी को पार कर रहा हो, और ऐसे ही चलते-चलते मंझधार मैं पहुँच भी चुका हो, परन्तु इस प्रकार की स्थिति में यदि सहसा झंझावात आ जाए, तूफान आ जाए, तब वह अपने को कैसे बचा सकेगा? यदि उसने बचने का उपाय पहले से नहीं सी वा है, तो । नौका एक माध्यम है जल धारा को पार करने के लिए । परन्तु नौका चलाने की कला यदि ठीक तरह नहीं सीखी है, तो कैसे पार हो सकता है ? यही स्थिति संसार-सागर को शरीर रूपी नौका से पार करते हुए अध्यात्म-साधक की होती है । मुक्ति के लक्ष्य को स्थिर कर लेना ही पर्याप्त नहीं है, उससे भी बढ़कर आवश्यक यह है कि एक साधक उसे कैसे प्राप्त कर सके ? भारत के अध्यात्मवादी दर्शन में केवल मुक्ति के लक्ष्य को स्थिर ही नहीं किया गया, और केवल यही नहीं कहा गया कि मुक्ति एक लक्ष्य है और वह एक आदर्श है, बल्कि, उस लक्ष्य तक पहुँचने और उसे प्राप्त करने का मार्ग और उपाय भी बताया गया है। मुक्ति के आदर्श को बताकर साधक से यह कभी नहीं कहा गया कि वह केवल तुम्हारे जीवन का आदर्श है, पर तुम कभी उसे प्राप्त नहीं कर सकते। क्योंकि उसकी प्राप्ति का कोई अमोघ साधन नहीं है। इसके विपरीत उसे सतत एक ही प्रेरणा दी गई, कि मुक्ति का आदर्श अपने में बहुत ऊँचा है, किन्तु वह अलभ्य नहीं है । तुम उसे अपनी साधना के द्वारा एक दिन अवश्य प्राप्त कर सकते हो। जिस आदर्श साध्य की सिद्धि का साधन हो, वह साध्य ही कैसा! आश्चर्य है कुछ लोग आदर्श की बड़ी विचित्र व्याख्या करते हैं । उनके जीवन के शब्द-कोष में आदर्श का अर्थ है-'मानव-जीवन की वह उच्चता एवं पवित्रता, जिसकी कल्पना तो की जा सके, किन्तु जहाँ पहुँचा न जा सके ।' मेरे विचार में आदर्श की यह व्याख्या सर्वथा भ्रान्त है, बिल्कुल गलत है। भारत की अध्यात्म संस्कृति कभी यह स्वीकार नहीं कर सकती कि 'आदर्श आदर्श है, वह कभी यथार्थ की भूमिका पर नहीं उतर सकता । हम आदर्श पर न कभी पहुंचे हैं और न कभी पहुंचेंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy