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धर्म-साधना का आधार | १६३ स्वार्थ को छोड़ने की आवश्यकता है, आगे चलकर खण्ड परार्थ को छोड़कर भी अखण्ड परमार्थ को ग्रहण करने की आवश्यकता है। आज का मनुष्य अहंकार और ममकार में डूबा हुआ है। अहंकार और ममकार का सर्प जब तक मानव मन की बाँबी में बैठा हुआ है, तब तक जिन्दगी के हर मार्ग पर खतरा ही खतरा है। धर्म तत्त्व यह है, कि अहंकार को छोड़ो और विनम्रता को पकड़ो तथा ममता को छोड़ो और अनासक्ति को पकड़ो। आज के समाज में कितनी विषमता दीख रही है, एक के पास धन का ढेर लगा है, दूसरे के पास खाने कों अन्न का एक कण भी नहीं है। जब तक हमारे आस-पास भखी भीड़ की भूख मँडराती रहेगी, तब तक न महल में शान्ति हो पाएगी और न झोपड़ी में शान्ति हो पाएगी। धनिक को अपने धन का अहंकार रहता है और गरीब को अपनी गरीबी का दैन्य रहता है, दोनों ही दुनिया के भयंकर पाप हैं और इन सब विषमताओं और द्वन्द्वों का मूल क्षुद्र मानव-मन की आसक्ति-मूलक अहंता एवं ममता ही है। इन सब द्वन्द्वों से बचने का रास्ता धर्म ही दिखला सकता है। किन्तु प्रश्न है, कि धर्म किसका, तन का या मन का? तत्त्वदर्शी पुरुषों ने इसका एक ही समाधान किया है, कि तन की भूख सीमित होती है, उसे आसानी से मिटाया जा सकता है, किन्तु मन की भूख अथाह और अगाध है । तन की भूख की दवा धन हो सकता है, किन्तु मन की भूख की दवा तो धर्म ही है। इसलिए धन को अपेक्षा धर्म ही बड़ा है । तन को अपेक्षा मन की सीमा ही अधिक है । जब तक धन के आधार पर मानव के जीवन का मूल्यांकन होता रहेगा, तब तक धर्म की महिमा बढ़ नहीं सकती। जिसके पास परिग्रह का जितना अधिक बोझ है, उसकी आत्मा सत्य से उतनी ही दूर है। धर्म हमें यह कहता है, कि इन्द्रियों को वश में करो, आत्म-स्वरूप को पहचानो । अपने को समझने पर सब कुछ समझना आसान है। धन को समझने से जीवन-समस्या का हल नहीं है, धर्म को समझने से ही जीवन-समस्या का हल होगा। मानव-जीवन को यह कितनी भयंकर बिडम्बना है, कि कौड़ी को तो सँभालकर रखता है, किन्तु रत्न को लुटाता फिरता है। याद रखिए, धन कभी जीवन की रक्षा नहीं कर सकेगा । धर्म हो जीवन की रक्षा कर सकेगा। आत्मा को खोकर संसार का साम्राज्य भी पाया तो क्या पाया ? आत्मा को खोकर अन्य सब कुछ पाया तो क्या पाया? आत्मा के खोने पर धर्म की रक्षा नहीं हो सकेगी । धर्म की रक्षा के लिए आत्मा को समझो।
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