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________________ १६२ | अध्यात्म-प्रवचन सुलझाव.मिल सकेगा । जो कुछ बाहर दीख रहा है, उस पर आँख मूंदनी होगी और जो कुछ बाहर सुनाई दे रहा है, उसे अनसुना करना होगा, तभी आप अन्दर को देख सकेंगे और अन्दर को सुन सकेंगे। इन्सान ने इस धरती पर अपने अहंकार से जो कुछ खड़ा किया है, वह सब कुछ एक दिन खंडहर बन जाएगा। इस दुनिया में क्या रहा है ? सम्राटों के प्रासादों के अतुल वैभव कहाँ हैं ? उनके महलों की रंगीन दुनियाँ कहाँ है ? उनकी शक्ति का वह दर्प, जिससे अन्वे बनकर उन लोगों ने दुनियाँ को कुचलना चाहा था, बताइए आज कहाँ हैं ? सब कुछ धूल में मिल गया । काल ने सबको लथेड़ डाला है। यह सब कुछ होने पर भी हमारे जीवन का एक दूसरा भी दृष्टिकोण है, और वह है, मृत्यु के बीच अमर बनने की कला। भगवान पार्श्वनाथ के पास यही कला थी, भगवान महावीर के पास यही कला थी, केशीकुमार श्रमण के पास यही कला थी और यही कला थी गणधर गौतम के पास । मृत्यु से अमर बनने की कला जिसके हाथ लग जाती है, वस्तुतः उसी व्यक्ति को मैं धर्मशील साधक कहता हूँ। हमारे सामने दो तत्त्व हैं. एक धर्म और दुसरा धन । जीवन का मंगल किसमें हैं, धर्म में अथवा धन में? इन्सान की जिन्दगी को शानदार बनाने वाली धर्म की कमाई है अथवा धन की कमाई ? धर्म की सत्ता होते हुए भी वह बाहर दिखलाई नहीं पड़ता, किन्तु धन भौतिक जीवन की ऊपरी सतह पर खड़ा रहता है, इसीलिए धर्म की अपेक्षा संसारी आत्मा को धन की प्रतीति अधिक होती है। जिस प्रकार धरती में डाला गया बीज दिखलाई नहीं पड़ता, किन्तु उसके वृक्ष बन जाने पर वह दृष्टिगत होने लगता है, इसी प्रकार धर्म भले ही दिखलाई न पड़ता हो, किन्तु धर्म का शुभ एवं शुद्ध परिणाम अवश्य ही अनुभव का विषय होता है। धर्म की महिमा अपार है, धर्म का बीज इतना छोटा है कि उसे देखने के लिए ऊपर की आँख नहीं, भीतर को आँख चाहिए। धर्म की बात करना आसान है, किन्तु 'धर्म पर आस्था होना बड़ा कठिन है। इस भौतिकवादी युग में भौतिकवादी मानव, धर्म को भूलकर भोग के प्रतीक धन की पूजा कर रहा है । आज के जन जीवन में जिधर भी मैं देखता हूँ, मुझे दीखता है, कि सर्वत्र कल-पूजा और कला-पूजा हो रही है। आज के जनजीवन की यह इन्द्रियपरायणता है । जहाँ इन्द्रियपरायणता है, वहाँ धर्म स्थिर कैसे रह सकता है ? धर्म को स्थिर करने के लिए खण्ड Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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