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________________ १६६ | अध्यात्म-प्रवचन यही बात साधना क्षेत्र में लागू पड़ती है । साधना का क्षेत्र कितना भी व्यापक और कितना भी विशाल क्यों न हो ? यदि उसका सम्वन्ध अपने मूल केन्द्र सम्यक् दर्शन से बना हुआ है, तो वह साधना अवश्य फलवती होती है । सम्यक् दर्शन के अभाव में विराट साधना तो क्या, अल्प साधना भी सफल नहीं होती । जीवन का एक मोर्चा नहीं है, हजारों-हजार मोर्चे हैं -कहीं काम का, कहीं क्रोध का, कहीं लोभ का और कहीं क्षोभ का । उक्त सभी मोर्चों पर होने वाले युद्ध में आप तभी सफल हो सकते हैं, जबकि आपका सम्बन्ध आपके मूल केन्द्र सम्यक् दर्शन से बना हुआ है । सम्यक् दर्शन हमारे जीवन के युद्ध का एक वह मोर्चा है, जहाँ पर सुरक्षित खड़े होकर हम अपने जीवन की दुर्बलताओं पर घातक प्रहार करते हैं । जीवन के एक-एक दोष को देखकर उसका संशोधन एवं परिमार्जन करना ही हमें विजय की ओर ले जाने वाला सबसे अधिक प्रशस्त मार्ग है । जीवन के विविध मोर्चों पर लड़ने वाला यह आत्मा यदि सम्यक् दर्शन के मूल केन्द्र पर खड़ा है, तो संसार की कोई भी ताकत उसे पराजय के मार्ग पर घसीट नहीं सकती । ज्ञानवान होना और चारित्रवान होना अच्छा है, किन्तु उससे पहले सम्यक् दर्शनधारी बनना आवश्यक है । यदि सम्यक दर्शन की निर्मल ज्योति नहीं है, तो सामान्य ज्ञान तो क्या, पूर्वों का सागरोपम ज्ञान भी दुर्गति से हमारी रक्षा नहीं कर सकता । सम्यक् दर्शन के अभाव में मोक्ष कभी सम्भव ही नहीं है । सम्यक् दर्शन के मूलकेन्द्र से सम्बन्ध टूट जाने पर, फिर धर्म की रक्षा का कोई आधार ही हमारे पास नहीं रहता । सम्यक् दर्शन के अभाव में पूर्व-धर ज्ञानी भी मर कर नरक में जा सकता है । इस कथन का रहस्य यही है, कि सम्यक् दर्शन के अभाव में ज्ञान, ज्ञान नहीं रहता और चारित्र, चारित्र नहीं रहता । प्रश्न किया जा सकता है, कि पूर्व श्रुत जितना विशाल ज्ञान प्राप्त करके भी यह आत्मा नरक-गामी क्यों होता है ? उक्त प्रश्न के समाधान में इतना कहना ही पर्याप्त होगा, कि शास्त्र - स्वाध्याय और ज्ञान की साधना निरन्तर होने पर भी आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचान पाता और अपने स्वरूप को न पहचानने के कारण ही उस आत्मा की दुर्गति होती है, वह पतन - पथ का पथिक वन जाता है । तप बहुत किया, जप बहुत किया, त्याग बहुत किया, किन्तु सम्यक् दर्शन के अभाव में वह सब एक प्रकार का नाटक का खेल रहा । क्योंकि जब तक धर्म केवल तन तक ही सीमित रहता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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