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धर्म-साधना का आधार | १६७
उसका प्रवेश आत्मा की सीमा में नहीं होता, तब तक व्यवहार दृष्टि से तो वह त्याग कहलाता है, किन्तु निश्चय दृष्टि से वह त्याग नहीं है । व्यवहार भी नहीं, व्यवहारभास है, और इसके खेल एक बार नहीं, अनेक बार, और अनेक बार भी क्या, असंख्य बार खेल चुके हैं, किन्तु उससे हमारी आत्मा में क्या परिवर्तन आया ? यह एक विचारणीय प्रश्न है ।
आपने आचार्य 'अंगारमर्दन' का नाम सुना होगा । वह अपने युग के एक बहुत बड़े आचार्य थे, उनके पाण्डित्य का प्रभाव सर्वत्र फैला हुआ था । बड़े-बड़े राजा और महाराजा उनके भक्त थे, उनका शिष्यपरिवार भी बहुत बड़ा था । एक से एक सुन्दर राजकुमार उनकी तर्क - बुद्धि के चमत्कार से प्रभावित होकर उनके शिष्य बन गए थे । प्रतिभा और बुद्धि के साथ-साथ आचार्य में प्रवचन की शक्ति भी अद्भुत थी । जिस किसी भी विषय को आचार्य जन-चेतना के समक्ष उपस्थित करते थे, तो वह विषय इतना सजीव एवं साकार हो जाता था, कि श्रोता उसे सुनकर गद्गद् हो जाते थे, मुग्ध हो जाते थे । जिस किसी भी देश में और देश की राजधानी में आचार्य का पदार्पण होता था, तो उनकी वाणी का अमृत पान करने के लिए जनता बन्धनमुक्त जल-प्रवाह की तरह उमड़ पड़ती थी । इतनी अद्भुत शक्ति थी आचार्य अंगारमर्दन में | अंगारमर्दन उनका मूल नाम नहीं था, वह तो बाद की एक घटना पर पड़ा, जिसका वर्णन मैं आपके समक्ष कर रहा हूँ ।
एक बार एक राजा ने स्वप्न में देखा, कि पाँच सौ सिंह एक गीदड़ की उपासना कर रहे हैं । राजा ने पहले कभी अपने जीवन में इस प्रकार का विचित्र स्वप्न नहीं देखा था । पाँच सौ सिंह और उनका अधिपति एक गीदड़, बड़े अजब - गजब की बात थी । राजा ने यह स्वप्न देखा, तो उसके आश्चर्य और विस्मय का पार न रहा । उसने अपने मंत्रियों से तथा अपनी सभा के अन्य बुद्धिमान सभासदों से इस विषय में चर्चा की और पूछा, कि इस स्वप्न का क्या अर्थ है ? इस कि गूढ़ रहस्य को कैसे जाना जाए ? कुछ समझ में नहीं आ रहा था, मंत्री और सभासद राजा के उस विचित्र स्वप्न का क्या अर्थ लगाएँ । एक सिंह भी जिस वन में रहता है, उसकी गर्जना को सुनकर हजारोंहजार गोदड़ दूर भाग जाते हैं और इस स्वप्न में राजा ने पाँच सौ सिंहों का आधिपत्य करते हुए एक गीदड़ को देखा था । स्वप्न क्या था, एक विचित्र पहेली थी, स्वयं राजा के लिए भी और उसके मंत्री
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