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________________ साधना का लक्ष्य ८७ से भिन्न है। वह कहता है, कि यह आत्मा अनन्त बार नरक के भयंकर दुःखों की आग में जल चुका है और अनन्त बार स्वर्ग-सुखों के झूलों पर भी झल चुका है । अनन्त अनन्त बार मानव पशु-पक्षी, कीट पतंग भी बन चुका है। यह सत्य है, परन्तु यह नहीं कहा जा सकता, कि जो आत्मा अनन्त काल से संसार में रहता आया है, वह अनन्त भविष्य में भी संसार में ही रहेगा। जैन-दर्शन इस तथ्य को स्वीकार नहीं करता, कि आत्मा का जन्म-चक्र और मृत्यु-चक्र कभी नहीं टूटेगा। वह यह मानता है कि अध्यात्म-साधना के द्वारा यह आत्मा सर्व प्रकार के बन्धनों से सदा के लिए मुक्त हो सकता है। चिन्तन और अनुभव करना, आत्मा का सहज स्वभाव है। जब बुरे चिन्तन का बुरा अनुभव हो सकता है, तब अच्छे चिन्तन का अच्छा अनुभव क्यों नहीं होगा। आत्मा अनुभव करता है, उसमें अनुभव करने की सहज शक्ति है । अपने अन्तर की आवाज को यदि कोई सुने, तो वह अवश्य ही यह अनुभव करेगा, कि अन्दर भी कोई चित् शक्ति है, और वह अनन्त है । जब वह शक्ति काम, क्रोध, वासना और घृणा में फंस सकती है, तब उसमें से एक दिन वह निकल भी सकती है। यदि अध्यात्म-साधक गम्भीरता के साथ अपने विकार और विकल्पों पर विचार करे, तो वह इसी निर्णय पर पहुँचेगा कि यह विकार और विकल्प आत्मा के अपने नहीं हैं । निश्चय ही संसार की प्रत्येक आत्मा बन्धन-मुक्त होने के लिए छटपटाती रहती है । एक साधारण चींटी को भी यदि आप देखेंगे, तो आपको पता चलेगा कि चलते-चलते जब उसके मार्ग में कोई रुकावट आ जाती है, अथवा कोई व्यक्ति उसे रोकने का प्रयत्न करता है, तो वह उससे बच निकलने के लिए कोशिश करती है। संसार का चींटी-जैसा एक साधारण जन्तु भी बन्धन में नहीं रहना चाहता। आप पक्षी को पिंजरे में बन्द रखना चाहते हैं, उसके भोजन एवं जल की व्यवस्था भी आप पिंजरे में ही कर देते हैं। उसके लिए सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं का आप पूरा ध्यान रखते हैं । और कुछ दिनों के बाद आप यह समझ लेते हैं कि अब यह पालतू हो गया है, जैसे हमारे घर के अन्य सदस्य हैं, वैसे ही यह भी एक सदस्य है। आप यह विश्वास कर लेते हैं कि यह अब कहीं जा नहीं सकता। मगर जरा मौका मिला नहीं कि वह पक्षी अनन्त गगन में उड़ जाता है। जिस पक्षी को आपने इतने प्रेम और स्नेह से पाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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