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________________ २८० | अध्यात्म प्रवचन बाद नामदेव ने सोचा, जिस सज्जन ने मुझे इस भोजन की सामग्री दी है, उसने कुछ थोड़ा सा घी भी मुझे दिया है, उसका उपयोग भी मुझे कर लेना चाहिए। इधर नामदेव के मन में एक दूसरा पवित्र विचार भी चक्कर काट रहा था, कि इस शुभ वेला में कोई भी अतिथि आए तो क्या ही अच्छा हो ! मैं पहले उसे भोजन करा कर फिर स्वयं भोजन करू । भोजन के समय किसी अतिथि का स्मरण करना, भारतीय संस्कृति की अपनी एक विशेषता है। और यह विशेषता ऊँची भूमिका के सन्तों में भी है, मध्यम भूमिका के नागरिकों में भी है तथा नीची भूमिका के किसानों में भी हैं। अतिथिसत्कार भारतीय जीवन के कण-कण में परिव्याप्त है। जैन-संस्कृति में इस अतिथि-सत्कार का एक विशिष्ट रूप है, जिसे 'अतिथि संविभाग व्रत' कहा गया है। अतिथि-संविभाग का अर्थ है-भोजन की वेला में जो कुछ, जैसा भी और जितना भी तुम्हें प्राप्त हुआ है, उसमें सन्तोष कर लेना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि भोजन से पूर्व अपने मन में यह भावना करो, कि मेरे जीवन का वह क्षण कितना धन्य हो, जबकि भोजन के समय कोई अतिथि मेरे यहाँ उपस्थित हो, और इस प्राप्त भोजन में से मैं उसका संविभाग उसे अर्पित करूं। संविभाग अर्थात् सम-विभाग का अर्थ, किसी को भीख देना नहीं है, बल्कि आदर के साथ उचित रूप में और उचित मात्रा में अर्पित करना है। नामदेव के जीवन में, जिसकी चर्चा मैं आपसे यहाँ कर रहा हूँ, यही संस्कृति काम कर रही थी। नामदेव ज्यों ही अपनी झोंपड़ी के अन्दर रखे हुए घी को लेने गया, त्यों ही बाहर से एक कुत्ता अन्दर आया और वह सबकी सब रोटियाँ लेकर भागा। नामदेव ने इस प्रकार कुत्ते को रोटो ले जाते हुए देखा, परन्तु अजबगजब की बात है, कि इस दृश्य को देखकर भी नामदेव को जरा भी क्रोध नहीं आया और न किसी प्रकार का दुःख ही हुआ। यद्यपि वे बहुत दिनों से भूखे थे और स्वयं उन्हें ही रोटियों की अत्यन्त आवश्यकता थी, किन्तु उन्होंने अपने मन की गहराई में यही सोचा कि यह कुत्ता कुत्ता नहीं है, यह कुत्ता भी भगवान का ही एक रूप है। नामदेव की दृष्टि में वह कुत्ता नहीं था, उनकी दृष्टि में हर आत्मा परमात्मा का ही रूप था। वे उस घी के पात्र को हाथ में लेकर कुत्ते के पीछे-पीछे दौड़े । कुत्ता आगे-आगे भागा जा रहा था और पीछे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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