SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन | २८१ पीछे नामदेव दौड़े चले जा रहे थे। नामदेव बहुत ही शान्त और मधुर स्वर में उस कुत्ते को सम्बोधित करके कह रहे थे-"अरे भाई ! रोटी ले जा रहे हो, तो ले जाओ, इसकी मुझे जरा भी चिन्ता नहीं है । परन्तु रोटियाँ रूखी हैं, उन पर जरा घी तो लगवा लो।" इस दृश्य को देखकर दूसरे लोग हंस रहे थे और नामदेव का मजाक कर रहे थे। किसी अन्य की भक्ति का मजाक करना आसान है, किन्तु स्वयं भक्ति करना आसान नहीं है। भक्ति वही कर सकता है, जिसने अपना जीवन प्रभु को समर्पित कर दिया हो। लोग कहते हैं, चन्दना ने भगवान को दान तो दिया, किन्तु वह दान क्या था, उबले हुए उड़द । भगवान महावीर को चन्दना ने उबले हुए उड़दों का दान किया, तो क्या यह कोई बहुत बड़ा दान था ? किर भी हम सुनते हैं, कि चन्दना के इस दान के महात्म्य से प्रभावित होकर, चन्दना के घर पर स्वर्ग के देवों ने, स्वर्ण की दृष्टि की। कहाँ स्वर्ण की वृष्टि और कहाँ तुच्छ उबले हुए उड़दों का दान ? परन्तु मैं आपसे यह कहता हूँ कि चन्दना ने भगवान महावीर को क्या दिया, यह मत देखो। देखना यह है, कि किस भाव से दिया। दान में वस्तु का मूल्य नहीं होता, भाव का ही मूल्य होता है । चन्दना को सी भावना हर किसी दाता में कहाँ होती है ? चन्दना की भावना का वेग उस समय अपने आराध्य देव के प्रति इतना प्रबल था, कि यदि उस समय उसके पास त्रिभुवन का विशाल साम्राज्य होता, तो उसे भी वह उसी भाव से अर्पित कर देती, जिस भावना से उसने उड़दों का दान किया। आज के तर्कशील लोग चन्दना के दान का उपहास करते हैं, उपहास करना सरल है, किन्तु जरा वह अपने हृदय को टटोल कर देखें, क्या उनके हृदय में वह भावना है, जो अपने आराध्य देव के प्रति चन्दना में थी। आराधक जब अपने आराध्य के चिन्तन में तन्मय हो जाता है, तब उसे यह भी पता नहीं रहता कि मैं अपने आराध्य को क्या कुछ दे रहा है । भक्त के हृदय में भक्ति का एक वह जादू होता है, जिसके प्रभाव से विश्व की तुच्छ से तुच्छ एवं नगण्य से नगण्य वस्तु भी महान और विराट बन जाती है। माधुर्य किसी वस्तु में नहीं होता, बल्कि मनुष्य की भावना में ही वह रहता है। अपने घर पर आने वाले किसी अतिथि को आप मधुर से मधुर भोजन कराएं और साथ में उसका तिरस्कार भी करते रहें, तो वह मधुर भोजन भी विष बन जाता है। इसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy