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________________ अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन | २७५ करके, अशुद्ध की ओर अधिक झुकता है। जितना ध्यान दोष देखने की ओर होता है, उतना गुण देखने का नहीं होता। जब तक अशुद्ध से पराङ मुख होकर शुद्ध को देखने की प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं होगी, तब तक जीवन के शुद्ध तत्व को कैसे प्राप्त किया जा सकेगा? साधक के जीवन का लक्ष्य अशुभ से हटकर केवल शुभ को प्राप्त करके बैठ जाना नहीं है, किन्तु उससे भी आगे बढ़कर शुद्ध को प्राप्त करना है। परन्तु जब तक शुद्ध भाव की उपलब्धि न हो, तब तक शुभ को पकड़े रखना भी आवश्यक है । अशुभ की निवृत्ति के लिए ही शुभ का अवलम्बन है । अस्तु, जीवन की प्रत्येक क्रिया में शुभत्व का दर्शन करना चाहिए। हम अपने नेत्रों से शुभ को देखें, हम अपने कानों से शुभ को सुनें, हम अपनी वाणी से शुभ को बोलें और हम अपने मन में शुभ का ही चिन्तन करें। हमें शुभत्व के दर्शन का इतना अभ्यास कर लेना चाहिए, कि बाहर में जो सबके लिए अशुभत्व हो, उसमें भी हमें शुभत्व का ही दर्शन हो। यदि अशुभ देखने की ही हमारी आदत बनी रही तो यह निश्चित है, कि हमारे जीवन का विकास नहीं हो सकेगा। साधक-जीवन की यह कितनी भयंकर विडम्बना है, कि वह सर्वत्र अशभ ही अशुभ देखता है। जब मन में अशुभत्व होता है, तो बाहर भी सर्वत्र अशुभत्व ही दृष्टिगोचर होता है। यहाँ तक कि जहां प्रेम, सेवा और सद्भावना का दीप जलता रहता है, वहाँ भी उसे अशुभ एवं अन्धकार ही नजर आता है। इसका कारण यह है, कि हमारी दृष्टि अशुभ देखने की बन जाती है। इसी से जीवन की जाज्वल्यमान ज्योति वहाँ भी नजर नहीं आती। जब हम किसी विचारक व्यक्तिविशेष की अथवा किसी पंथ-विशेष की ओर देखते हैं, तब हमें उसमें दोष ही दोष नजर आते हैं, कहीं पर भी गुण नजर नहीं आता । जिन लोगों की दृष्टि दोषमय बन जाती है, उन लोगों के लिए यह सारी सुष्टि ही दोषमय बन जाती है। गुलाब का फूल कितना सुन्दर होता है, उसमें कितनी अच्छी महक आती है और देखने में वह कितना लुभावना लगता है, किन्तु जिस व्यक्ति को दृष्टि दोष देखने को हो जाती है, वह इस सुन्दर और सुरभित कुसुम में भी दोष ही देखता है । वह देखता है, कि गुलाब का फूल नुकीले काँटों की डाली पर बैठा है, उसके इधर-उधर उसे कांटे ही काँटे नजर आते हैं। परन्तु वह यह नहीं सोचता कि यदि गुलाब की डाल काँटों से भरी है, तो उसमें सुगन्ध से भरपूर फूल भी खिला है। हमारी दृष्टि फूलों पर नहीं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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