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________________ २७६ | अध्यात्म प्रवचन बल्कि काँटों पर रहती है। जीवन में यदि हमारी दृष्टि इस प्रकार की बन जाती है, तो फिर जीवन क्षेत्र में हम कहीं भी चले जाएं, या विश्व के किसी भी किनारे पर क्यों न चले जाएँ, हमें सर्वत्र अशुभ ही दृष्टिगोचर होगा । इस सम्बन्ध में मुझे एक रूपक याद आ रहा है, जो काल्पनिक होकर भी सत्य का उद्घाटन करता है । एक बार एक कौआ बड़ी तेजी के साथ नील आकाश में उड़ा चला जा रहा था । एक कोयल ने, जो आम के वृक्ष की सबसे ऊँची डाली पर बैठी हुई थी, इस दृश्य को देखा और कौवे से पूछा - "आज आप इतनी तेजी के साथ कहाँ जा रहे हो ?" कौवे ने उपालम्भ के स्वर में कहा - "तुम्हें क्या बतलाऊँ, कहाँ जा रहा हूँ ? जिसके दिल में दर्द होता है, वही उसकी पीड़ा को अनुभव कर सकता है । तुम मेरे दिल के दर्द को और मेरी पीड़ा को कैसे अनुभव कर सकती हो । " कोयल ने सान्त्वना के स्वर में पूछा - " आखिर बात क्या है ? आपके दिल का दर्द कैसा है, जरा मैं भी तो सुनूं । यह ठीक है जब तक किसी के दिल के दर्द का किसी को पता न हो, तब तक उसकी पीड़ा का वह अनुभव नहीं कर सकता। मैं यह जानना चाहती है, कि आपके दिल का दर्द क्या है और कैसा है ?" कौवे ने कहा - "देखिए, मुझे खाने-पीने की चीज की कमी नहीं है, किन्तु जीवन में खाना-पीना ही तो सब कुछ नहीं है । खाने-पीने से भी बड़ी एक चीज है, जिसकी प्रत्येक प्राणी को आवश्यकता रहती है और वह है, उसका आदर और सत्कार । मैं जहाँ रहता हूँ, वहाँ मेरा कोई आदर सत्कार नहीं करता है । इसलिए मैं इस देश को छोड़कर दूर के किसी देश में जा रहा हूँ, जहाँ आदर और सत्कार मिले । आज मेरे धैर्य का बाँध टूट गया है । मैं इस देश में जहाँ भी जाता हूँ, वहाँ सर्वत्र कदम-कदम पर मुझे तिरस्कार और पत्थर ही मिलते हैं । आदर और सत्कार की कोई वस्तु मेरे जीवन में नहीं है । इस देश का एक भी प्राणी, मुझसे प्रेम नहीं करता । यही मेरे दिल का दर्द है । और इसी दिल के दर्द को दूर करने के लिए, मैं इस देश को छोड़कर किसी दूर देश में जा रहा हूँ । भले ही वहाँ खाने-पीने को कम मिले, परन्तु आदरसत्कार तो अवश्य ही मिलेगा ।" कोयल ने कौवे की सब बातों को बड़ी सहानुभूति के साथ सुना, और बहुत ही संयत एवं शान्त स्वर में बोली - " यदि आप बुरा न मानें, तो एक सत्य कह दूँ ?" कौवे ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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