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________________ २७४ | अध्यात्म प्रवचन आवश्यकता रहती है और न किसी अन्य व्यक्ति की सेवा की ही आवश्यकता रहती है । दृष्टि के अभाव में ही धन और सेवा उसके सूख के साधन हो सकते थे, किन्तु दृष्टि मिल जाने पर तो वह स्वयं ही उन्हें प्राप्त कर सकता है, फिर उसे किसी के आगे हाथ फैला कर भीख मांगने की आवश्यकता नहीं रहती। तीर्थंकर और गणधर उस दृष्टि दाता के समान ही हैं, जो मोहमुग्ध संसारी आत्माओं को सम्यक् दर्शन रूप दिव्य दृष्टि प्रदान करके, उसे आत्म-निर्भर बना देते हैं। ___ कहा जाता है, कि पीटर एक बहुत दयालु व्यक्ति था। एक बार एक दीन-हीन भिखारी, जो कि पैर से लँगड़ा था, पीटर के पास आया, और गिड़गिड़ा कर भीख मांगने लगा। पीटर ने उस भिखारी से मधुर स्वर में कहा-"मेरे पास तुम्हें देने के लिए, सोने और चाँदी के सिक्के तो नहीं हैं, पर मैं तुम्हें एक चीज अवश्य दे सकता हूँ।" और पीटर ने आगे बढ़कर उस लँगड़े भिखारी का पैर ठीक कर दिया, और कहा, भाग जाओ। वह भिखारी जो लँगड़ाता-लँगड़ाता आया था, अब सरपट दौड़ता चला गया। यह एक छोटी सी घटना है। इसमें शाब्दिक तथ्य कितना है, इसकी अपेक्षा यह समझने का प्रयत्न कीजिए, कि इसका मर्म क्या है ? पीटर ने उस दीन भिखारी को जो कुछ दिया, उससे अधिक दान और सेवा क्या हो सकती थी ? यह एक सत्य है, कि सोना और चाँदी देने की अपेक्षा, यदि किसी व्यक्ति को स्वयं उसके पैरों पर खड़े होने की कला सिखा दी जाए, तो यह उसकी सबसे बड़ी सेवा होगी। अध्यात्मवादी भारत के दर्शन और चिन्तन ने भले ही संसार को धन और ऐश्वर्य न दिया हो, परन्तु उसने लंगड़ों को पैर और अन्धों को आँख अवश्य दी हैं, तथा जो भोगवादी व्यक्ति अपने स्वरूप को भूल गए थे, उन्हें उनके स्वरूप का बोध अवश्य कराया है। साधक की प्रसुप्त शक्ति को जागृत करने का दिव्य संदेश उसने अवश्य दिया है। ___ साधक के जीवन की एक सबसे बड़ी भूल यह है, कि वह अपना विकास स्वयं अपने पुरुषार्थ पर न करके, किसी बाहरी शक्ति के अवलम्बन की आशा रखता है। वह इस तथ्य को भूल जाता है, कि जो कुछ पाना है, अपने अन्दर से ही पाना है। आत्मा जैसा भी शुभ या अशुभ कर्म करता है, वैसा ही उसका जीवन परिवर्तित होता जाता है । आत्मा की एक सबसे बड़ी भूल यह है, कि वह शुद्ध का दर्शन न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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