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________________ अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन [ २७३ एक शून्य विन्दु से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता । जब इंसान के अन्दर में आत्मविज्ञान की निर्मल गंगा बहती है, तभी उसका जीवन पावन और पवित्र बनता है । मैं आपसे कह रहा था, कि मानसिक शक्ति का केन्द्र ही सबसे बड़ा केन्द्र है । बाह्य जगत को क्रियाओं का मूल मन के अन्दर रहता है । बाह्य दृश्य जगत का मूल अन्तर के अदृश्य जगत में रहता है। विचार करने पर आप इस सत्य को समझ सकेंगे, कि तीर्थंकर, गणधर और अन्य आचार्यों ने जीवन-विकास का जो पथ अध्यात्म-साधकों को बताया है, यही उनका महान उपकार है, जो कभी भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने हमारे जीवन के अज्ञान और अविद्या को दूर करने का उपाय बताया तथा आत्म-साक्षात्कार का मार्ग बताया, इससे अधिक सुन्दर और मधुर अन्य क्या वरदान हो सकता है ? उन महापुरुषों के द्वारा की जाने वाली मानव जाति की यह बहुत बड़ी सेवा है, कि उन्होंने हमें भोग के अन्धकार से निकाल कर योग के दिव्य आलोक में लाकर खड़ा कर दिया। उन्होंने हमें बतलाया, कि यह जीवन जो तुम्हें उपलब्ध हो चुका है, विष नहीं है। अमृत है । अमृत समझकर ही इसकी उपासना करो। यही दिव्यदृष्टि और यही दिव्य आलोक भारत के उन महापुरुषों की अपूर्व देन है। कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति अन्धा है, वह कुछ देख नहीं पाता, इसलिए वह बड़ा हैरान और परेशान रहता है। इस स्थिति में उसके पास एक व्यक्ति आता है और कहता है, कि लो, यह धन की थैली मैं तुम्हें दान में देता हूँ, इसे पाकर तुम सुखी हो जाओगे, यह धन तुम्हारी समस्त जीवन-समस्याओं का समाधान कर सकेगा। एक दूसरा व्यक्ति आता है, और उस अन्धे से कहता है, कि लो, मैं तुम्हारी सेवा के लिए आ गया है, मैं सदा तुम्हारी सेवा करता रहेगा, जहाँ जाओगे, वहाँ, तुम्हारा हाथ पकड़ कर ले जाऊँगा। यह भी सेवा का एक प्रकार है । दूसरे व्यक्ति के पास धन तो नहीं है, किन्तु शरीर की सेवा अवश्य है। किन्तू एक तीसरा व्यक्ति आता है, जो एक वैद्य है या योगी है और वह उस अन्धे व्यक्ति को दृष्टि प्रदान कर देता है । वह अन्धा व्यक्ति दृष्टि को पाकर परम प्रसन्न होता है और वैद्य अथवा योगी के उपकार से अत्यन्त उपकृत हो जाता है। यद्यपि वैद्य ने अथवा योगी ने न उसे धन दिया, न शरीर से उसकी कोई सेवा की, किन्तु सब कुछ न करके भी उसने सब कुछ कर दिया। उस अन्धे को दृष्टि प्रदान करके उन्होंने एक ऐसी शक्ति दे दी, कि अब उसे न किसी के धन की For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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