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जैन दर्शन का मूल : सम्यक् दर्शन | २९३
बतलाता है, कि आत्मा से परमात्मा कैसे बना जाए, तथा भवबन्धनों का अभाव कैसे किया जाए ? समाज-धर्म, जाति-धर्म और परम्परा के कर्तव्यों का मार्ग, भले ही वह कितना भी लम्बा क्यों न हो, उसको संकलित करने की और अंकित करने की शक्ति होते हुए भी, अध्यात्मवादी सन्तों ने उसकी उपेक्षा क्यों की ? यह एक महत्व - पूर्ण प्रश्न है । जिन्होंने समस्त मार्गों के कण-कण को देख लिया, महासागर जैसे विशालकाय दर्शन ग्रन्थों की जिन्होंने रचना की, क्या वे स्मृतियों की रचना नहीं कर सकते थे ? अवश्य ही कर सकते थे, फिर भी उन्होंने वैसा नहीं किया । कारण, उन्होंने देखा कि सामाजिक क्रियाकाण्ड शाश्वत सत्य नहीं है । वह आज है, कल नहीं है, अतः इसके लिए अपनी शक्ति का अपव्यय क्यों किया जाए ? समाज और परम्परा के नियमों में प्रान्त, जाति, देश और काल आदि की भिन्नता भी अवश्य ही रहेगी । उन्होंने सोचा कि इन पुराने घेरों को तोड़ कर नये घेरे क्यों डाले जाएँ ? यदि रीति-रिवाजों के घेरों में बंधना आवश्यक है, तो पुरानों में ही क्यों न बंधा जाए, उसके लिए नए बन्धन बाँधने की क्या आवश्यकता ? इस स्थिति में एक प्रश्न उत्पन्न होता है, कि परंपरागत स्मृतियों के किन-किन विधानों को आप स्वीकार करते हैं और किन-किन विधानों को आप स्वीकार नहीं करते ? इस प्रश्न के उत्तर में जैन परम्परा के अध्यात्मवादी संतों ने एक ही उत्तर दिया, कि न हम किसी विधान को एकान्त रूप से स्वीकार करते हैं और न किसी विधान को हम एकान्त रूप में अस्वीकार ही करते हैं । जिसके स्वीकार करने से हमारा आत्म-भाव अक्षुण्ण रहता है, वह सब कुछ हमें स्वीकार है । और जिससे आत्मा में मलिनता उत्पन्न होती है, जिससे आत्मा अपवित्र बनती है, वह सब कुछ हमें स्वीकार नहीं है । मूल बात आत्मा की है और उससे भी पहले मूल बात सम्यक दर्शन की है । सम्यक् दर्शन को क्षति पहुँचाने वाला कोई भी विधान हमें स्वीकार नहीं हो सकता । एकान्त निषेध और एकान्त विधान जैसी स्थिति को हम स्वीकार नहीं कर सकते । जीवन - विकास में जो विधान सहायक है, उसका हम आदर करते हैं और उसे स्वीकार भी करते हैं । इसके विपरीत आत्म विकास में बाधा डालने वाले किसी भी विधान को स्वीकार नहीं किया जा सकता । आखिर समाज के यह विधि और निषेध स्थायी नहीं हैं ! इनमें तो परिवर्तन होता ही रहता है । परिवर्तित देश और काल के अनुसार विधि निषेध बन जाते हैं और निषेध विधि । वह लौकिक
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