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२६२ | अध्यात्म प्रवचन
में तीन-तीन बार कपड़े बदलता रहता है- परन्तु इस प्रकार नये-नये पड़े बदलने की क्रिया से वह आप नहीं बदल जाता । आप तो वहीं का वहीं रहता है । उसके अपने आपके मूल स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता । आप स्वयं भी चाहे अपने रूप कितने ही क्यों न बदल लें, आप किसी भी रूप में क्यों न रहें, पर देर-सबेर आपकी अपनी मौलिक पहचान अवश्य हो जायेगी । इसी प्रकार बाहर के क्रिया काण्ड भले ही बदलें, परन्तु अन्तर में साधक की आत्मा संवर एवं निर्जरा के स्वरूप को कभी नहीं बदलती । यदि मूल आधार ही बदल जाए, तब तो सभी कुछ गड़बड़ा जाएगा । यदि मूल के विशुद्ध, पवित्र और स्थिर रहते हुए, बाहर में हजारों हजार परिवर्तन भी आ जाएँ, तब भी आत्मा का कुछ बिगड़ नहीं सकता । हमारी अध्यात्म - साधना का मूल आधार सम्यक् दर्शन ही है, यदि वह सुरक्षित है एवं वह अक्षुण्ण है तो फिर बाहर के परिवर्तनों से हमें किसी प्रकार का भय नहीं होना चाहिए | अध्यात्मवादी जैनदर्शन में समाज, जाति और परम्परा के सम्बन्ध में कुछ विशेष नहीं लिखा गया है । समाज के रीति रिवाजों और परम्पराओं की उलझन में उलझना उसे अभीष्ट नहीं था, क्योंकि वह आत्मा का धर्म है, किसी भी समाज एवं जाति का धर्म नहीं है । जो धर्म समाज एवं जाति पर आधारित होता है, उसी में इस प्रकार के समाज और जाति के नियमों का विधान होता है । यही कारण है कि अध्यात्मवादी दर्शन में आत्मा के अतिरिक्त अन्य सामाजिक विधि-विधानों को महत्व नहीं दिया जाता है । उसका लक्ष्य एक मात्र आत्म-विशुद्धि ही होता है ।
अभी मैं आपसे यह कह रहा था, कि जैन परम्परा के किसी भी आचार्य ने इस सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा, कि विभिन्न समाजों और विभिन्न जातियों में प्रचलित रीति रिवाजों और परम्पराओं में से क्या ठीक है और क्या नहीं ? किसे रखना और किसे नहीं रखना, किसे छोड़ना और किसे नहीं छोड़ना ? क्योंकि यह सब समाज के कर्तव्य हैं और समाज के कर्तव्यों में से क्या रखना और क्या छोड़ना और क्या करना और क्या नहीं करना - यह अध्यात्म-शास्त्र का विषय नहीं है । यही कारण है, कि किसी भी प्राचीन जैन आचार्य ने वैदिक मनुस्मृति जैसा स्मृति ग्रन्थ नहीं लिखा । इस सम्बन्ध में वस्तुस्थिति यह है, कि अध्यात्मवादी दर्शन एकमात्र यही बात
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