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________________ जैन-दर्शन का मूल : सम्यक् दर्शन | २९७ कर ही किसी तथ्य को स्वीकार किया जाए। जब हम अपने प्राचीन शास्त्रों का एवं दर्शन-ग्रन्थों का अध्ययन और मनन करते हैं, तब ऐसा प्रतीत होता है, कि तर्कों का एक प्रचण्ड तुफान आ गया है। देखा गया है, कि इस तर्क के युद्ध में कभी-कभी शिष्य अपने गुरु से भी आगे निकल जाता है । जब गुरु का निर्णय शिष्य को नहीं भाया, तो उसने अपने तर्क और बुद्धि के बल पर आगे दौड़ लगाई और वह अपने गुरु से भी आगे बढ़ गया। गुरु गुड़ ही रह गया और चेला चीनी बन गया । गुरु के विचारों से शिष्य का मतभेद होना, पतन का मार्ग नहीं है। यह ठीक नहीं है, कि गुरु से शिष्य निरन्तर हीन ही होता जाए। यह बात गलत है, कि एक गुरु का शिष्य सदा शिष्य ही बना रह जाए, वह गुरु न बन सके । . एक बार वेदान्त-परम्परा के एक सन्यासी मुझे मिले । हम दोनों में काफी देर तक विचार-चर्चा चलती रही। बातचीत के प्रसंग में मैंने पूछ लिया, कि “एक व्यक्ति किसी गुरु का शिष्य क्यों बनता है ?" सन्यासी जी ने मेरे प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि-"शिष्य गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु का शिष्य बनता है।" मैंने कहा कि "ज्ञान क्या कोई लेने देने की चीज है ? यह तो आत्मा का अपना ही निज गुण है। और निज गुण बाहर में दूसरे को कैसे दिया जा सकता है ? जब ज्ञान लेने और देने जैसी कोई चीज नहीं है, तो फिर एक व्यक्ति किसी गुरु का शिष्य क्यों बनता है ?" सन्यासी वेदान्ती थे । वेदान्त के अनुसार भी ज्ञान आत्मस्वरूप ही होता है, अतः वह लेने और देने की वस्तु नहीं है। मैंने सन्यासी से कहा-कि "आपका जवाब एक साधारण बाजारू जवाब है। आपके सिद्धान्त के अनुसार भी यह कैसे उचित हो सकता है, कि एक शिष्य गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु का शिष्य बनता है। स्वामी जी, जरा गहराई में उतरिए, शिष्य शिष्य बनने के लिए नहीं, अपितु शिष्य, गुरु बनने के लिए ही शिष्य बनता है । जो गुरु शिष्य को शिष्य बनाता है, वह उसे गुरु नहीं बना सकता । यदि शिष्य सदा शिष्य ही बना रहता है, तो यह कोई सुन्दर बात नहीं है । मेरे विचार में प्रत्येक शिष्य गुरु बनने के लिए ही शिष्य बनता है। शिष्य सारे जीवन भर शिष्य बने रहने के लिए और गरु के विचारों की भारी भर-कम गठरियों को सिर पर ढोने के लिए शिष्य नहीं बनता है । भारतीय दर्शन के अनुसार शिष्य श्रोता नहीं, द्रष्टा है, वह सत्य को श्रवण तक ही नहीं, अनुभव तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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