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________________ अध्यात्म साधना | ७५ था वह, दूसरों के जीवन के प्रति । हजारों-हजार हत्याएँ करने के बाद भी उसके दिल और दिमाग में कभी पश्चात्ताप की एक बूँद भी उद्भूत नहीं हो सकी । परन्तु जब अन्दर से लहर उठी, अन्दर के वेग ने उसे झकझोर दिया और जब आत्मा की अपने अन्दर की प्रचण्ड शक्ति ने उसे प्रबुद्ध कर दिया, तब वह कठोर न रहकर मृदु हो गया, क्रूर न रहकर दयालु बन गया । उसका जीवन इतना अधिक शान्त एवं दान्त बन गया, कि अपनी ही प्रेयसी द्वारा विष देने पर भी उसमें विकार और विकल्प की एक धूमिल रेखा भी अंकित नहीं हो सकी । साधना के क्षेत्र में बाहर की प्रेरणा भले ही कुछ दूर तक हमारा साथ दे सके, हमारा मार्ग निर्देशन कर सके, किन्तु अन्त में साधक को अपनी शक्ति पर ही चलना होगा, साधक को अपनी ताकत पर ही आगे बढ़ना होगा । राजा प्रदेशी को केशी कुमार श्रमण का उपदेश अवश्य मिला था, परन्तु ऐसे उपदेश तो अनेकों को मिले हैं, उनका क्यों नहीं उद्धार हुआ ? निमित्त की एक सीमा है, आगे चलकर साधक को स्वयं अपने पैरों खड़ा होना होता है। शिशु को उसके माता-पिता एवं अन्य अभिभावक तभी तक अपनी अँगुली का सहारा देते हैं, जब तक कि उसके पैर चलने में लड़खड़ाते रहते हैं, परन्तु जब उसके पैरों में जरा स्थिरता आ जाती है, तब उसे सहारा नहीं दिया जाता । धीरे-धीरे वह चलना सीख जाता है और उसे अपनी शक्ति पर विश्वास हो जाता है । आपने देखा होगा कि कुछ लोग अपने घर के तोते को राम-राम रटा देते हैं । तोता यथावसर राम शब्द का उच्चारण करता भी रहता है । परन्तु क्या वह उसके भाव और रहस्य को समझ सकता है ? उसे जो कुछ रटा दिया गया है, उससे अलग वह कुछ नहीं कह सकता । उसमें सोचने और समझने की शक्ति नहीं है । उसके स्वामी ने जो कुछ भी उसे पढ़ा दिया है, उसके अतिरिक्त वह अन्य कुछ न बोल सकता है और न सोच ही सकता है। कुछ साधक भी उस तोते के समान ही होते हैं । उपदेष्टा और गुरु ने जो कुछ रटा दिया, जो कुछ पढ़ा दिया और जो कुछ सिखा दिया, उसके अतिरिक्त नया चिन्तन एवं अनुभव वे प्राप्त नहीं कर सकते । वे लोग अपनी स्वयं की बुद्धि से न कुछ सोच पाते हैं, न अपनी स्वयं की वाणी से कुछ बोल पाते हैं और न अपने स्वयं के शरीर से कोई निर्धारित कार्य ही कर पाते हैं । इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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