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________________ ७६ | अध्यात्म-प्रवचन प्रकार के साधक कहीं पर भी हों, किसी भी परम्परा में क्यों न हों, जिनके पास स्वयं का प्रकाश नहीं है, वे दूसरों को प्रकाश कैसे दे सकते हैं ? शास्त्र का हथौड़ा और गुरु का डंडा कब तक उन्हें साधना के मार्ग पर अग्रसर करता रहेगा? कब तक उन्हें लक्ष्य की ओर आगे बढ़ाता रहेगा? ___ मैं आपके समक्ष मोक्ष और उसके साधनों की चर्चा कर रहा था। जैन-दर्शन में मोक्ष के साधन तीन हैं - सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र । चिन्तन और मनन करने के बाद आपको यह ज्ञात होगा, कि कुछ विचारक और तत्त्वचिन्तक ज्ञान और चारित्र को ही मोक्ष का मार्ग बतलाते हैं। आगम-ग्रन्थों में दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीन के अतिरिक्त, तप को भी मोक्ष का अंग, साधन एवं उपाय बतलाया गया हैं। मेरे विचार में दो, तीन एवं चार में किसी प्रकार का अन्तर नहीं पड़ता। दो कहने वाले भी तीन को मानते हैं। उन लोगों का कहना है कि जहाँ सम्यक ज्ञान होता है, वहाँ सम्यक् दर्शन स्वतः होता ही है, अतः दर्शन को उन्होंने ज्ञान के अन्दर मान लिया । जो लोग तप को चौथा अंग मानते हैं, उनके लिए तीन वालों का कहना है, कि चारित्र में तप स्वतः आ ही जाता है। तप चारित्र से भिन्न नहीं है । और जो तप को मोक्ष का चतुर्थ कारण मानते हैं, वे भी तप को चारित्र से भिन्न नहीं मानते, अपितु तप को विशिष्ट महत्ता देने की दृष्टि से भिन्नत्वेन कथन करते हैं। संक्षेप और विस्तार को छोड़ कर मध्यम दृष्टि से मोक्ष के साधन तीन हैं-दर्शन, ज्ञान और चारित्र। आपने यह सोचा होगा, कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र के साथ सम्यक् शब्द क्यों जोड़ा गया है ? इसकी आवश्यकता भी क्या है ? यह प्रश्न आज ही नहीं, हजारों वर्ष पूर्व भी उठा था और जब तक मानव-जीवन है, तब तक अनन्त भविष्य में भी यह प्रश्न उठ सकता है। आज आपके समक्ष भी यह प्रश्न है, कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र से पूर्व सम्यक् शब्द क्यों जोड़ा गया है ? ___ मैं समझता हूँ आपका प्रश्न युक्तियुक्त है। हर समझदार व्यक्ति को प्रश्न करने का अधिकार है। इस सम्यक् शब्द के रहस्य को समझने के लिए, आपको कुछ गहराई में उतरना होगा, जीवन-समुद्र के ऊपर-ऊपर तैरते रहने से सत्य का मोती हाथ लगने वाला नहीं है। भारत के अध्यात्म-शास्त्र में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है, कि ज्ञान आत्मा का निज गुण है । जो निज गुण होता है, वह कभी अपने गुणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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