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________________ अध्यात्म साधना | ७७ से अलग नहीं हो सकता । अनन्त अतीत में एक समय भी ऐसा नहीं रहा, जबकि ज्ञान आत्मा को छोड़कर, अलग चला गया हो और अनन्त अनागत में एक क्षण का भी समय ऐसा नहीं आएगा, जब कि ज्ञान आत्मा को छोड़कर अलग हो जाएगा । जीवन के वर्तमान क्षण में भी आत्मा में ज्ञान है ही । इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है, ज्ञान की आत्मा में कालिक सत्ता है । इसी प्रकार दर्शन भी आत्मा का निज गुण है। ज्ञान के समान दर्शन भी आत्मा में सदा रहा है और सदा रहेगा तथा वर्तमान में भी उसकी सत्ता है । चारित्र भी आत्मा का गुण है, जहाँ आत्मा है वहाँ चारित्र अवश्य रहेगा। आत्मा की सत्ता अनन्त काल से है और अनन्त काल तक रहेगी । चारित्र भी अनन्त काल से है और अनन्त काल तक रहेगा । इस प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों आत्मा के निज गुण हैं । जो गुण हैं, वे अपने गुणी से कभी अलग नहीं हो सकते। क्योंकि गुण और गुणी में अविना भाव सम्बन्ध होता है, जिसका अर्थ है - गुण गुणी के बिना नहीं रह सकता, और गुणी भी बिना गुण के नहीं रह सकता । क्या कभी उष्णता अग्नि को छोड़ कर रह सकती हैं ? और क्या कभी अग्नि उष्णता हीन हो सकती है ? इसी प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र कभी आत्मा को छोड़कर अन्यत्र नहीं रह सकते और आत्मा भी उक्त तीनों गुणों को छोड़कर कभी नहीं रह सकता । इसी को अविना भाव सम्बन्ध कहा जाता है । गुण और गुणी न सर्वथा भिन्न हैं, और न सर्वथा अभिन्न हैं । जैन दर्शन गुण और गुणी में व्यवहार नय से कथंचित् भेद और निश्चय नय से कथंचित् अभेद स्वीकार करता है । जैन दर्शन की यही अनेकान्त - दृष्टि है । भेद-कथन व्यावहारिक है और अभेद-कथन नैश्चियक है । मैं आपसे कह रहा था कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र आत्मा के निज गुण हैं, वे कभी आत्मा को छोड़कर अन्यत्र नहीं रह सकते । दर्शन का अर्थ प्रतीति, रुचि एवं विश्वास होता है । वह दर्शन रहा तो अवश्य, परन्तु आत्माभिमुख न रहकर शरीराभिमुख रहा । आत्मा का यह दर्शन गुण निगोद की स्थिति में भी रहा । निगोद, चैतन्यजीवन की सबसे निकृष्ट स्थिति मानी जाती है । निगोद की स्थिति में चेतना शक्ति इतनी हीन एवं क्षीण स्थिति में पहुँच जाती है, कि वहाँ प्रत्येक चैतन्य के पास अपने पृथक्-पृथक् शरीर भी नहीं रहते, बल्कि, एक ही शरीर में अनन्त अनन्त चेतनों को अधिवास करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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