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________________ साधना का लक्ष्य | ८६ जाना यह भी बन्धन है। स्वर्ग और नरक दोनों प्रकार के बन्धनों को तोड़ना, यही आत्मा का सहज स्वभाव है। भारत का अध्यात्मवादी दर्शन यह कहता है, कि संसार के सुख और भोग विलास भी उसी प्रकार त्याज्य हैं, जिस प्रकार दुःख और क्लेश त्याज्य हैं। कल्पना कीजिए-किसी व्यक्ति के पैर में काँटा लग जाता है, और वह व्यक्ति वेदना से छटपटाता है । दूसरा व्यक्ति शूल (लोहे की पैनी सुई या पिन) को लेकर उसके पैर के कांटे को निकाल देता है। काँटा निकलने पर वह व्यक्ति यदि कहे कि इस शुल ने पैर में चुभकर कांटे को निकाला है, इसलिए यह अच्छा है, अस्तु, इसे मैं अपने पैर में ही चुभाए रखूगा, अलग नहीं करूंगा। यदि इस प्रकार किया जाता है, तो यह एक प्रकार की मूढ़ता ही होगी । ज्ञानी और विवेकशील आत्मा की दृष्टि में काँटा निकालने वाला शूल भी उसी प्रकार त्याज्य है, जिस प्रकार कि पैर में लगने वाला काँटा । संसार के पुण्य और पाप तथा तज्जन्य सुख और दुःख की भी यही कहानी है। अध्यात्म दृष्टि में पाप और पुण्य दोनों ही काँटे हैं। किन्तु पाप के बदले पूण्य के काँटे को अपने अन्तर की गहराई में लगाए रखना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती। संसार के सुख और दुःख तब तक समाप्त नहीं होंगे, जब तक कि यह आत्मा भव बन्धनों से सर्वथा मुक्त न हो जाएगा। अध्यात्मवादी साधक की दृष्टि में संसार के दुःख ही त्याज्य नहीं हैं, किन्तु संसार के क्षणिक सुख भी अन्ततः ज्याज्य हैं, छोड़ने के योग्य हैं । यदि कोई व्यक्ति एक ओर से संसार के दुःखों को तो छोड़ता रहे, किन्तु दूसरी ओर संसार के सुखों को समेटता रहे, तो वह व्यक्ति उसी पागल अपराधी के समान है, जो अपने पैर में सोने की बेड़ी होने के कारण अपने आपको उन अपराधियों से श्रेष्ठ समझता है जिनके पैरों में लोहे की बेड़ियाँ हैं । अध्यात्म-दष्टि से विचार करने पर प्रतीत होता है, कि संसार के सुख भी, सुख रूप न होकर दुःख रूप ही होते हैं। जिन स्वर्ग-सुखों की मोह-मुग्ध आत्मा अपने दिमाग में रंगीन कल्पनाएँ करता है. आखिर, उन स्वर्ग के देवों के सुखों का भी एक दिन अन्त अवश्य ही होता है। अनन्त अतीत में सेठ, साहूकार, राजा और महाराजाओं का सुख क्या कभी स्थायी रहा है, और क्या अनन्त भविष्य में भी वह स्थायी हो सकेगा ? संसार के यह विषय और भोग ज्ञानी की दृष्टि में विष ही हैं, वे कभी अमृत नहीं हो सकते । और जो विष है, वह सदा त्याज्य होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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