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१२६ | अध्यात्म-प्रवचन
जो भी कुछ है, जितना भी है और जैसा भी है, वह सब असत्य है, उस पर हमें विश्वास नहीं है। कितनी विचित्र बात है कि सम्यग् दर्शन और श्रद्धा के नाम पर लोग काल के श्रावण, एवं भाद्रपद आदि विभिन्न खण्डों पर विश्वास करते हैं, देश के तीर्थ आदि खण्डों पर विश्वास करते हैं, किन्तु अखण्ड आत्मा पर विश्वास करने के लिए कोई तैयार नहीं होता । आग्रहशील बुद्धि के लोग इतना तक कहने का दावा करते हैं, कि जो कुछ हमारे गुरु ने कहा है और जो कुछ हमारे पोथी-पन्नों में उल्लिखित है, उससे बाहर सत्य है ही नहीं ? विचित्र बात है कि वे लोग अपनी धर्मान्धता के कारण, असीम एवं अनन्त सत्य को भी सान्त एवं सीमित बना रहे हैं। वे लोग यह भी कहते हैं कि भले ही युग बदल जाए, परिस्थिति बदल जाए, समाज एवं राष्ट्र बदल जाए और सब कुछ बदल जाए, किन्तु हमारी पोथी का सत्य कभी नहीं बदल सकता। हमारा सत्य, हमारा पंथ और हमारे गुरु का कथन ही त्रैकालिक सत्य है। इस प्रकार के मतान्ध लोगों की बात को सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। मैं तो क्या, स्वयं भगवान भी उन्हें समझा नहीं सकते । जिसका सत्य सीमित है, कदाग्रह से परिवेष्टित है, उसे समझाने की क्षमता किसी में भी नहीं है। ___ यह एक प्रकार की कूपमण्डूकता है । जो कुछ हमारा है, वही पूर्ण एवं कालिक सत्य है- इससे बढ़कर मिथ्यात्व और क्या हो सकता है । एक समुद्र का मेंढक भाग्य-योग से किसी पार्श्वस्थ कूप के मेंढक के पास पहुंच गया। कूप के मेंढक ने नवागन्तुक मेंढक से पूछा"आप कौन हैं ? कहाँ से आए हैं ?"
समुद्र के मेंढक ने शान्त और गम्भीर स्वर में कहा-“मैं तुम्हारी जाति का ही एक प्राणी हूँ। अलबत्ता मेरे रहने का स्थान आपसे भिन्न अवश्य है, परन्तु यह निश्चित है, तुम और हम एक ही जाति के बन्धु हैं।"
कूप के मेंढक ने कहा- “यह तो मैं मानता हूँ कि तुम और हम एक ही जाति के जीव हैं, किन्तु जरा यह तो बतलाइए कि आपके रहने का स्थान कहाँ है ?" ___ समुद्र के मेंढक ने कहा-"मेरे रहने का स्थान है-विशाल सागर ।"
कूप के मेंढक ने पूछा-"सागर क्या होता है ?"
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