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________________ अध्यात्मवाद का आधार | १२५ त्रता और अमरता का परिज्ञान होता है। साधक के लिए सर्वश्रेष्ठ तत्वभूत पदार्थ आत्मा ही है । आत्मा के अस्तित्व से ही पुद्गल का भी मूल्य है। इस विश्व में तत्वभूत पदार्थ दो ही हैं-जीव और पुदगल, किन्तु उन दोनों में भी जीव ही मुख्य है । क्योंकि जीव भोक्ता है और पुद्गल भोग्य है । यदि भोक्ता नहीं है, तो भोग्य का अपने आप में कोई अर्थ नहीं होता । जीव और पुद्गल की संयोग-अवस्था को ही आस्रव कहा जाता है तथा जीव और पुद्गल के क्रमिक एवं सम्पूर्ण वियोग को ही संवर, निर्जरा एवं मोक्ष कहा जाता है। मेरे कथन का अभिप्राय इतना ही है, कि तत्वभूत पदार्थों में प्रधानता जीव एवं आत्मा की हो है । आत्मा पर श्रद्धा करना और आत्मा पर विश्वास करना ही, निश्चय दृष्टि से सम्यग् दर्शन है । व्यवहार दृष्टि से देव, गुरु और धर्म पर विश्वास को भी सम्यग् दर्शन कहा जा सकता है। आज का साधक भले ही वह श्रमण हो या श्रावक, निश्चय विश्वास को छोड़कर व्यवहार-विश्वास पर आ टिका है । वह यह नहीं समझ पाता, कि व्यवहार का आधार भी तो निश्चय ही है। उसने मूल आधार को भुला दिया और व्यवहार को पकड़ कर बैठ गया। आज वह हर वस्तु की नाप-तोल निश्चय से नहीं, व्यवहार से करता है । वह वृक्ष के मूल को नहीं देखता, उसके बाह्य सौन्दर्य को ही देखकर मुग्ध हो जाता है। वह देखता है कि वृक्ष पर हरे भरे पत्ते हैं, सुरभित कुसुम हैं और मधुर फल हैं । किन्तु यदि उस वृक्ष का मूल न हो, तो यह सब कुछ कैसा रहेगा ? जिस वृक्ष की जड़ सूख गई, उसमें हरे पत्ते कब तक रहेंगे? उसमें सुरभित पुष्प कब तक महकेंगे और उसमें मधुर फल कब तक लगे रहेंगे । यही बात आज के साधकों के सम्बन्ध में है । वे अपने पथ पर विश्वास करते हैं, वे अपने सम्प्रदाय पर विश्वास करते हैं, वे अपने सम्प्रदाय के आचार्यों पर भी विश्वास करते हैं और वे अपने सम्प्रदाय के गले-सड़े पोथी-पन्नों पर विश्वास करते हैं। किन्तु वे इस नर में जो नारायण है, उस पर विश्वास नहीं कर पाते । इस शव में जो शिव है, उसको वे भूल जाते हैं। कुछ लोग तर्क करते हैं, कि हम तो सत्य-ग्राही हैं, इसलिए सत्य को ही पकड़ते हैं। किन्तु मैं पूछता हैं कि आपका सत्य क्या है ? तो मुझे उत्तर मिलता है हमारे गुरु ने जो कुछ कहा वही सत्य है, हमारे पंथ के पोथी-पन्ने जो कुछ कहते हैं वही सत्य है और हमारे पंथ के पुरातन पुरुषों ने जो कुछ कहा है वही सत्य है। उसके बाहर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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