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नहीं?
३१२ | अध्यात्म-प्रवचन पाप करके यह नरक में जा सकता है, पूण्य करके यह स्वर्ग में जा सकता है तथा संवर एवं निर्जरा रूप धर्म की साधना करके, यह मोक्ष में भी जा सकता है। मोक्ष अथवा मुक्ति जीव की ही होती है, अजीव की नहीं। जब हम अजीव शब्द का उच्चारण करते हैं, तो उसमें भी मुख्य रूप से जीव की ध्वनि ही कर्णगोचर होती है क्योंकि जीव का विपरीत भाव ही तो अजीव है। कुछ लोग तर्क करते हैं, कि जीव से पहले अजीव को क्यों नहीं रक्खा ? यदि सात तत्वों में, षड् द्रव्यों में और नव पदार्थों में पहले जीव को न कहकर, अजीव का ही उल्लेख किया जाता, तो क्या आपत्ति थी ? सबसे पहले हमारी अनु. भूति का विषय यह जड़ पदार्थ ही बनता है। यह शरीर भी जड़ है, इन्द्रियाँ भी जड़ हैं और मन भी जड़ है। जीवन की प्रत्येक क्रिया जड़ एवं पुद्गल पर ही आधारित है, फिर जीव से पूर्व अजीव क्यों
आपने देखा, कि कुछ लोग अजीव की प्रमुखता के समर्थन में किस प्रकार तर्क करते हैं ? मेरा उन लोगों से एक ही प्रति प्रश्न है, प्रतितक है। यदि इस तन में से चेतन को निकाल दें, यदि इस देह से देही को निकाल दें, तो इस शरीर की क्या स्थिति रहेगी ? चेतन हीन और जीव विहीन शरीर को आप लोग शव कहते हैं। याद रखिए, इस शिव के सम्बन्ध से ही, यह शव शिव बना हुआ है। यदि सात तत्वों में अथवा नव पदार्थों में जीव से पहले अजीव को रख दिया गया होता, तो यह इंसान के दिमाग का दिवालियापन ही होता । और तो क्या, मोक्ष की बात को भी पहले नहीं रखा, सबसे अन्त में रखा है। सबका राजा तो आत्म ही है, उसी के लिए यह सब कुछ है, उसकी सत्ता से ही अजीव की सार्थकता है। पूण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर और निर्जरा स्वतन्त्र कहाँ हैं, जीव की ही अवस्थाविशेष हैं ये सब । मोक्ष भी जीव की ही अवस्था है, और मोक्ष के हेतु संवर और निर्जरा भी जीव के ही स्वरूप हैं। बन्ध और मोक्ष जीव के अभाव में किसको होंगे ? अतः संसार में जीव की ही प्रधानता है।
संस्कृत भाषा में जिसे आत्मा कहते हैं, हिन्दी भाषा का 'आप' शब्द उसी का अपभ्रंश है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है, कि आत्मा से ही प्राकृत का अप्पा और अप्पा से हिन्दी का 'आप' बना है। आप और आत्मा दोनों का अर्थ एक ही है। आत्मा की बात अपनी बात
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