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________________ संसार और मोक्ष | ३११ जो आगे बढ़कर उसका राज्याभिषेक करता है। सिंह को वन का राज्य दिया नहीं जाता, बल्कि वह स्वयं अपनी शक्ति से उसका उपार्जन करता है। इसी प्रकार यहाँ पर भी यही सत्य है, कि इस जीव को त्रिलोक का नाथ दूसरा कोई बनाने वाला नहीं है, यह स्वयं ही अपनी शक्ति से तीन लोक का नाथ बन जाता है। जैसे राजा के सेवक सदा राजा के आदेश का पालन करने के लिए तत्पर खड़े रहते हैं, वैसे ही जीव रूप राजा के आदेश का पालन करने के लिए, अन्य द्रव्य, अन्य तत्व और अन्य पदार्थ सदा तत्पर खड़े रहते हैं। किसी में यह ताकत नहीं है, कि उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे चला सके, ठहरा सके अथवा अन्य भी कोई कार्य करा सके। जब उसकी इच्छा होती है, वह चलता है, जब उसकी इच्छा होती है, तब वह ठहरता है, जब उसकी इच्छा होती है. तभी वह अपना अन्य कोई कार्य संपादन करता है । अन्य पदार्थ तो केवल उसकी आज्ञा-पालन में तैयार खड़े रहते हैं। कुछ भी करने वाला और कुछ भी न करने वाला तो स्वयं जीव ही है । अन्य पदार्थ उसके कार्य में अथवा क्रिया कलाप में निमित्त मात्र ही रहते हैं। और निमित्ति भी प्रेरक नहीं, केवल उदासीन ही । यह जड़ शरीर और इसके अन्दर रहने वाली ये इन्द्रियाँ और मन भी तभी तक कार्य करते हैं, जब तक जीव रूप राजा इस शरीर रूप प्रासाद में रहता है। उसकी सत्ता पर ही इस संसार के सारे खेल चलते हैं। इस जड़ात्मक जगत का अधिष्ठाता और चक्रवर्ती यह जीव जब तक इस देह में है, तभी तक यह देह हरकत करता है, इन्द्रियाँ अपनी प्रवृत्ति करती हैं और मन अपना काम करता है। इस तन में से जब चेतन निकल जाता है, तब तन, मन और इन्द्रियाँ सब निरर्थक हो जाती हैं। इसी आधार पर मैं आपसे यह कह रहा था कि तत्वों में मुख्य तत्व जीव है, द्रव्यों में मुख्य द्रव्य जीव है और पदार्थों में प्रधान पदार्थ जीव है । इस अनन्त सृष्टि का अधिनायकत्व जो जीव को मिला है, उसका मुख्य कारण, उसका ज्ञान-गुण ही है । ज्ञान होने के कारण ही यह ज्ञाता है और शेष संसार ज्ञेय है। जीव उपभोक्ता है और शेष समग्र संसार उसका उपभोग्य है, ज्ञाता है, तभी ज्ञेय की सार्थकता है, उपभोक्ता है, तभी उपभोग्य की सफलता है । इस अनन्त विश्व में जीवात्मा अपने शुभ या अशुभ कर्म करने में स्वतन्त्र है, वह पाप भी कर सकता है और पुण्य भी कर सकता है, वह अच्छा भी कर सकता है और बुरा भी कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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