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________________ संसार और मोक्ष | ३०६ सन्देह नहीं है, कि अज्ञान और वासना के सघन जंगल को जलाकर भस्म करने वाला दावानल ज्ञान ही है। ज्ञान का अर्थ यहाँ पर किसी पुस्तक या पोथी का ज्ञान नहीं है, अपने स्वरूप का ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है । "मैं हूँ" यह ज्ञान जिसे हो गया, उसे फिर अन्य किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती। परन्तु यह स्वरूप का ज्ञाम भी तभी सम्भव है, जबकि उससे पहले सम्यक दर्शन हो चुका हो। क्योंकि सम्यक दर्शन के बिना जैनत्व का एक अंश भी प्राप्त नहीं हो सकता है। यदि सम्यक दर्शन की एक किरण भी जीवन-क्षितिज पर चमक जाती है, तो गहन से गहन गर्त में पतित आत्मा के भी उद्धार की आशा हो जाती है। सम्यक् दर्शन की उस किरण का प्रकाश भले ही कितना ही मन्द क्यों न हो, परन्तु उसमें आत्मा को परमात्मा बनाने की शक्ति होती है । याद रखिए, उस निरंजन, निर्विकार, शुद्ध, बद्ध, परमात्मा को खोजने के लिए कहीं बाहर भटकने की आवश्यकना नहीं है, वह आपके अन्दर में ही है । जिस प्रकार घनघोर घटाओं के बीच, विजली को क्षीण रेखा के चमक जाने पर क्षणमात्र के लिए सर्वत्र प्रकाश फैल जाता है, उसी प्रकार एक क्षण के लिए भी सम्यक् दर्शन की ज्योति के प्रकट हो जाने पर कभी न कभी आत्मा का उद्धार अवश्य हो ही जाएगा। बिजली की चमक में सब कुछ दृष्टिगत हो जाता है, भले ही वह कुछ क्षण के लिए ही क्यों न हो? इसी प्रकार यदि परमार्थ तत्त्व के प्रकाश की एक किरण भी अन्तर्हृदय में चमक जाती है, तो फिर भले ही वह कितनी ही क्षीण क्यों न हो, उसके प्रकाश में ज्ञान सम्यग् ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार ज्ञान को सम्यक् ज्ञान बनाने वाला, सम्यक् दर्शन ही है । यह सम्यक् दर्शन जीवन का मूलभूत तत्व है। ____ मैं आपसे कह रहा था, कि सप्त तत्व और नव पदार्थ पर श्रद्धान करना ही, सम्यक दर्शन है । तत्वों में अथवा पदार्थों में सबसे पहला जीव ही है । जीव, चेतन, आत्मा और प्राणी ये सब पर्यायवाची शब्द हैं । इस अनन्त विश्व में सबसे अधिक महत्वपूर्ण यदि कोई तत्व है, तो वह आत्मा ही है । 'मैं' की सत्ता का विश्वास और बोध यही अध्यात्म-साधना का चरम लक्ष्य है । इस समत्र संसार में जो कुछ भी ज्ञात एवं अज्ञात है, उस सबका चक्रवर्ती एवं अधिष्ठाता यह आत्मा ही है । आत्मा के अतिरिक्त संसार में अन्य दूसरे तत्व या पदार्थ हैं, वे सब उसके सेवक या दास हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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