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________________ २१४ | अध्यात्म प्रवचन वीतराग गुण स्थानों में भी रहता है, वहाँ पर भी उसका सुखात्मक एवं दुःखात्मक भोग होता ही है, किन्तु वहाँ पर रागात्मक एवं द्वषात्मक विकल्प का विष न रहने से कर्मों के उस भोग में आकूलता नहीं रहती है। कर्म का परिचक्र वहाँ पर भी चल रहा है, क्योंकि कर्म की सत्ता वहाँ पर भी विद्यमान है ही और जब तक कर्म की सत्ता विद्यमान है, तब तक उसका अनुकूल-प्रतिकूल वेदन, होता ही रहेगा, उसे रोका नहीं जा सकता । इस जीव में जैसे-जैसे रागात्मक एवं द्वेषात्मक विकल्प क्षीण एवं मन्द होते जाते हैं, वैसे-वैसे आत्म-भाव की स्वच्छता के कारण उल्लास एवं आनन्द भी बढ़ता जाता है । याद रखिए, कर्म का भोग भोगना एक अलग बात है और उसमें हर्ष एवं विषाद करना एक अलग बात है। वास्तविक सुख निराकुलता में है। इसके विपरीत जो भी दुःख है वह सब आकुलता में है। सांसारिक सुख भी आकुलता रूप ही है, अतः वह भी अन्तविवेक की दृष्टि से दुःख की कोटि में ही आता है। जीवन के इस तथ्य को ध्यान में रखकर सम्यक् दृष्टि आत्मा उस चतुर वैद्य के समान हो जाता है, जो अनाकुलता के द्वारा सुख-दुःख रूप जीवन-घातक विष को भी जीवन-उन्नायक अमृत बना देता है । यह कला सम्यक् दृष्टि जीव में ही हो सकती है, मिथ्या दुष्टि जीव में नहीं । सम्यक दृष्टि आत्मा अपने विवेक के कारण अपने हित अहित का विचार करता है । इसके विपरीत मिथ्या दृष्टि आत्मा, विवेक के अभाव में रागात्मक एवं द्वषात्मक विभाव-भावों के कुचक्र से प्रभावित हुए बिना रह नहीं सकता । यही कारण है कि न उसे कर्म के उदय भाव में शांति है, न उसे कर्म भोग में शांति है और न उसे कर्म-बन्ध में शांति है। मिथ्यादृष्टि आत्मा कहीं भी क्यों न चला जाए, वह अपने जीवन के विभावों एवं विकल्पों के प्रभाव से बच नहीं सकता, और इसी कारण उसके जीवन में सम्यक् दर्शन की विमल ज्योति का आलोक प्रसृत नहीं होता, इसीलिए वह सुख मिलने पर हर्ष करने लगता है और दुःख मिलने पर विषाद करने लगता है । वर्षाऋतु में आपने देखा होगा, कि मेंढक टर्र-टर्र किया करता है। मेंढक गन्दी तलैय्या का प्राणी है । वह तलैय्या में रहता है, और तलैय्या के गन्दे पानी में ही अपने को सुखी समझता है। तलैय्या में वर्षाऋतु के कारण जैसे ही कीचड़ और गन्दा पानी बढ़ता है, वैसे ही मेंढक गन्दे जल को पीकर कर्ण-बेधी स्वर से हल्ला मचाता है, मानो उसे सुख का कोई अक्षय भण्डार मिल गया है। उसके लिए वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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