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सम्यक् दर्शन के भेद | २१५. कीचड़ और गन्दा जल ही जीवन को बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। इसके विपरीत अथाह महासागर में रहने वाला मच्छ मौन भाव से रहता है। महासागर की अथाह एवं अगाध जल राशि को पाकर भी वह कभी शोर नहीं मचाता, अभिमान नहीं करता कि मैं बहुत समृद्ध हैं, मेरे पास कितना विशाल जल भण्डार है। संसार में अज्ञानी और विवेकहीन आत्मा को दुःख मिलना भी खतरनाक है और सुख मिलना भी। उसकी जिन्दगी को दोनों ही खराब और बरबाद करने वाले हैं । सुख एवं दुःख को पचाने की शक्ति ज्ञानी एवं सम्यक् दृष्टि जीव में ही होती है। क्योंकि सम्यक दृष्टि आत्मा एवं विवेक सम्पन्न आत्मा दुःख एवं क्लेश को घनघोर काली घटाओं में से भी चमकते चाँद के समान निकलता है और भयकर आग में तपाए हए स्वर्ण के समान दमकता है। सुख आने पर वह महासागर के महान मच्छ के के समान गम्भीर रहेगा और दुःख आने पर भी वह कभी अपनी विनम्रता एवं शालीनता का परित्याग नहीं करेगा। इसके विपरीत अज्ञानी आत्मा दुःख आने पर तो म्लान मुख हो ही जाता है, किन्तु सुख आने पर भी वह शांत नहीं बैठता और बरसाती मेंढक के समान टरटराता रहता है, हमेशा हल्ला मचाता रहता है। सुख और दुःख दोनों ही उसे व्याकुल बना देते है।
कृत कर्म अपनों शुभ या अशुभ फल सभी को प्रदान करता है। संसारी आत्मा, भले ही वह किसी भी स्थिति में क्यों न हो, कर्म के विपाक से बच नहीं सकता। कर्म का बन्धन संसार की प्रत्येक आत्मा में है, और यह बन्धन तब तक रहेगा, जब तक कि आत्मा की संसार दशा है । तीर्थंकर भी क्या है ? वह भी तीर्थंकर नाम कर्म का ही फल है । और तीथंकर नामकर्म मूलतः क्या है ? वह संसार ही है, मोक्ष नहीं । जब तक तीर्थंकर नामकर्म का भोग पूर्णरूप से नहीं भोग लिया जायेगा, तब तक तीर्थंकर की आत्मा भी मुक्ति नहीं पा मकती। मेरे कहने का अभिप्राय यह है, कि तीर्थंकर बन कर भी बन्धन रहता है, संसार रहता है। एक बार विचार-चर्चा के प्रसंग पर एक सज्जन ने मुझसे कहा कि “यदि मुझे अगले जन्म में मोक्ष प्राप्त हो और दूसरी ओर हजारों जन्मों के बाद तीर्थंकर होकर मोक्ष मिलने वाला हो तो मुझे हजारों जन्मों के बाद तीर्थंकर बन कर मोक्ष जाना ही अधिक पसन्द है।" मैंने पूछा-"ऐसा क्यों ?" तो उस भाई ने कहा"तीर्थंकर बनने पर इन्द्र सेवा में उपस्थित होंगे, छत्र और चामर
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