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________________ २१६ | अध्यात्म-प्रवचन होंगे, स्वर्ण कमलों पर पैर रखते हुए विहार होगा । कितना आनन्द आएगा ।" मैंने उस भाई से कहा - बस, इसी जय जयकार के लिए तीर्थंकर होना चाहते हो ? इससे आपको क्या लाभ होगा ? भाई, मुझे तो हजारों जन्मों बाद तीर्थंकर बनकर मोक्ष पाने के बदले अगले जन्म में क्या, इसी जन्म में मोक्ष जाना अधिक रुचिकर है, क्योंकि इस आत्मा को रागद्वेष से जितनी जल्दी छुटकारा मिल जाए उतना ही अधिक अध्यात्म लाभ है । तीर्थंकर बनना बुरा नहीं है, वह भी एक पुण्य प्रकृति है, किन्तु उसके लिए हजारों जन्मों तक राग द्वेष की मलिनता को स्वीकार करना, अध्यात्म दृष्टि से कैसे उचित कहा जा सकता है ? और फिर, तीर्थंकर पद उत्कृष्ट पुण्यरूप भले ही हो, आखिर है तो संसार की ही अशुद्ध स्थिति, संसार की ही बद्ध दशा । यदि कोई व्यक्ति यह सोचता है कि यदि मैं तीर्थंकर बन जाऊँ तो इन्द्र मेरी पूजा करने आएँगे, जब मेरा जन्म होगा, तव इन्द्र मेरा जन्ममहोत्सव मनाएँगे और जब मुझे केवल ज्ञान होगा, तब भी वे मेरी पूजा करेंगे तो यह सोचना ठीक नहीं है । जरा अध्यात्म दृष्टि से विचार तो करें, कि तीर्थंकर बन जाने पर इन्द्र आए और पूजा भी करे, तो उससे आत्मा का क्या लाभ होगा ? यदि निश्चय ही आत्मा का उससे कोई लाभ नहीं है, तो फिर हजार जन्मों तक तीर्थंकर बनने की प्रतीक्षा क्यों करू ? तीर्थंकर का भी जब मोक्ष होता है, तब यह इन्द्र- पूजा आदि बाह्य विभूति और बाहरी ऐश्वर्य सब संसार में ही रह जाता है । मोक्ष में तो केवल अकेला आत्मा ही जाता है । जब मोक्ष में जाने से पूर्व इस सब बाह्य विभूति को छोड़ना आवश्यक ही है, फिर उसके लिए हजारों जन्मों तक कर्म के बन्ध और उदय आदि के चक्र में पड़ने से क्या लाभ ? तीर्थकर पद पर आसीन होकर तीर्थंकर स्वयं भी उससे उपलब्ध होने वाली पूजा, प्रतिष्ठा और विभूति को संसार ही मानते है, बन्धन ही मानते हैं । तीर्थंकरों की दृष्टि में तीर्थंकर होना भी संसार है । जरा अपनी आत्मा में गहरे उतर कर विचार तो कीजिए कि जिस दर्शन में तीर्थंकर पद भी संसार और बन्धन बताया गया हो, उससे बढ़कर दूसरा और कौन वीतराग दर्शन एवं अध्यात्म दर्शन होगा ? यह वीतराग दर्शन की विशेषता है, कि वह इन्द्र की पूजा, छत्र, चामर आदि बाह्म विभूति को त्यागने की बात कहता है। इतना ही नहीं, उसकी अध्यात्मदृष्टि इतनी गहरी है, कि वह चक्रवर्ती पद और तीर्थंकर पद जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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