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१४८ | अध्यात्म-प्रवचन अपने घर में रहता है, और मिथ्यादृष्टि भी अपने घर में रहता है, किन्तु दोनों की दृष्टि में बड़ा अन्तर है । सम्यक्दृष्टि समझता है, कि जिस घर में मैं रह रहा हूँ, यहाँ रहना ही मेरा उद्देश्य नहीं है, एक दिन इस घर को छोड़कर जाना होगा। इस घर के समस्त वैभव और विलास को छोड़ना होगा। परिवार, समाज और राष्ट्र के ये संयोग एक दिन अवश्य ही वियोग में बदल जाएँगे। जब संयोग को वियोग में बदलना है, तो फिर इस घर को मैं अपना घर क्यों समझं, और इस घर के वैभव और विलास पर अपनी ममता की मुद्रा क्यों लगाऊँ ? जब संयोग आया है, तो वियोग भी अवश्य आएगा। यह विवेक-दृष्टि ही वस्तुतः सम्यक् दर्शन है । इसके विपरीत मिथ्या दृष्टि आत्मा क्या सोचता है ? वह सोचता है कि यह घर मेरा है, इस घर के वैभव और विलास सब मेरे हैं। परिवार और समाज मेरा अपना है। वह मिथ्या दृष्टि आत्मा संसार के संयोग को तो देखता है, किन्तु उसके अवश्यंभावी वियोग को वह देख नहीं पाता, अथवा देख कर भी उस पर विश्वास नहीं कर पाता। इसलिए संसार की प्रत्येक वस्तु पर, फिर भले ही वह वस्तु चेतन हो अथवा अचेतन, सजीव हो अथवा अजीव, सब पर वह अपनी ममता की मुद्रा लगाता चला जाता है । यही संसार का सबसे बड़ा बन्धन है और यही संसार का सबसे बड़ा मिथ्यात्व है। सम्यक दृष्टि आत्मा अपने जीवन रूप घर में स्वामी की तरह आता है, स्वामी की तरह रहता है, और स्वामी की तरह ही समय पर इस घर से विदा भी हो जाता है । स्वामी से मेरा तात्पर्य यह है, कि सम्यक दृष्टि आत्मा घर के उस स्वामी के समान स्वतन्त्र होता है, जो कभी भी अपने घर में प्रवेश कर सकता है और चाहे जब अपने घर से बाहर भी निकल सकता है। इसके विपरीत मिथ्या दृष्टि आत्मा अपने जीवन रूप घर में कैदो के समान आता है, कैदी के समान रहता है और कैदी के समान ही अपने घर से विदा होता है । कोई भी व्यक्ति अपने अपराध के कारण जब कैद में जाता है, तो वहाँ अपनी इच्छा से नहीं जाता, अपनी इच्छा से नहीं रहता और अपनी इच्छा से कैद से निकल भी नहीं सकता । यही स्थिति मिथ्यादृष्टि को होती है। मिथ्यादृष्टि आत्मा अपने घर में रहकर भी बन्धनों से बद्ध है। सम्यक दृष्टि आत्मा में और मिथ्या दृष्टि आत्मा में यह अन्तर उनकी दृष्टि का अन्तर है। मिथ्या दृष्टि आत्मा अपनी जिन्दगी का गुलाम होता है और सम्यक्
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