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________________ अध्यात्म साधना | ७१ एकमात्र उद्देश्य है, कि हम उस क्षणिक प्रकाश को स्थायी बना सकें। और यह तभी होगा, जब कि साधक एक ही सूत्र को, एक ही मंत्र को एक ही लक्ष्य को और एक ही आदर्श को अपने अन्तर्मन में बार-बार जपता रहेगा, बार-बार अनुशीलन एवं परिशीलन करता रहेगा। इसी को जीवन का मंथन कहते हैं, इसी को जीवन की रगड़ कहते हैं और इसी को जीवन का जप कहते हैं । इस मन्थन और जप में से ही सिद्धि का अनन्त प्रकाश प्रस्फुरित होगा।" ___ जो वस्तु ठोस होती है, उसके निर्माण में पर्याप्त समय लगता है । जिस तत्त्व-शास्त्र एवं अध्यात्म शास्त्र की चर्चा आपके सामने चल रही है, उसकी रचना यों ही एक-दो वर्ष में नहीं हो सकी है, उसके पीछे दीर्घकाल का चिन्तन एवं अनुभव है। किसी भी शास्त्र, मन्त्र एवं स्रोत को लें, उसके निर्माता का चिन्तन और अनुभव जितना गहरा होगा, वह उतना ही अधिक स्थायी रह सकेगा। जिसके निर्माण में श्रम एवं अभ्यास नहीं, चिन्तन और अनुभव नहीं, वह शास्त्र एवं मंत्र पानी के उस बुदबुदे के समान होता है, जो पानी की सतह पर कुछ देर थिरकता है और नष्ट हो जाता है । पानी का बुद्-बुद क्षण-क्षण में बनता और बिगड़ता रहता है, क्योंकि उसके पीछे कोई ठोस आधार नहीं होता। इसके विपरीत वर्षों के अनवरत श्रम और अभ्यास तथा चिन्तन एवं अनुभव के बाद जो कुछ निर्मित होता है, उसका अपना एक आधार एवं महत्व होता है। जिस कृति के पीछे कर्ता का जितना ही अधिक गहन एवं गम्भीर चिन्तन और मनन होता है, वह कृति उतनी ही अधिक सुन्दर और चिरस्थायी होती है। यही कारण है कि जन-परम्परा में भक्तामर स्तोत्र, कल्याण-मन्दिर स्तोत्र, और उपसर्ग हर स्तोत्र हजारों वर्षों की यात्रा के बाद आज भी ज्यों-के-त्यों चल रहे हैं। आज भी भक्तजन उन्हें उतनी ही श्रद्धा और लगन के साथ पढ़ते हैं, जिस लगन और श्रद्धा के साथ हजारों वर्ष पूर्व पढ़ते थे । इसका कारण उक्त स्तोत्रों की सुन्दर, रुचिकर एवं मधुर भाषा नहीं है, बल्कि प्रणेताओं का गहन गम्भीर चिन्तन और अनुभव ही है। इनका कोई प्रचार नहीं किया गया, फिर भी जन-मन की स्मृति में ये आज तक ताजा रहे हैं। चिरन्तन होकर भी ये नवीन हैं और नवीन होकर भी ये चिरन्तन हैं। इसका कारण यह है कि तत्त्व-चिन्तक कवियों के हृदय से जो अन्तर् की भक्ति-धारा प्रवाहित हुई, वह इतने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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