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________________ ३६४ | अध्यात्म-प्रवचन प्रतिबन्धक होता है । क्यों कि जब तक यह कर्म रहता है, मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। इन आठ प्रकार के कर्मों के बन्धन काल में जब पुण्यमय विकल्प उठता है, तब वह पुण्य कर्म-चेतना कहलाती है । और जब पापमय विकल्प उठता है, तब पाप कर्म चेतना कहलाती है। शुभ विकल्प रूप पुण्यकर्म चेतना से अघाती कर्मों में मुख्य रूप से पुण्य प्रकृति का बन्ध होता है, परन्तु पापकर्म चेतना से मुख्यत्वेन घाती और अघाती पाप प्रकृतियों का बन्ध होता है, क्योंकि उनके मूल में अशुभ विकल्प रहता है। पूण्य कर्म चेतना से मुख्यत्वेन अघाती कर्मों में तो उत्कृष्ट पूण्य प्रकृति का बन्ध होता है और गौण रूप से पुण्य कर्म चेतना के काल में जो घाती कर्म रूप पाप प्रकृति का बन्ध होता है, वह स्थिति, रस आदि के रूप में अल्प एवं मन्द बन्ध ही होता है, तीव्र नहीं। जिस प्रकार विशाल क्षीर सागर में यदि विष का एक बिन्दु डाल दिया जाए, तो उसका अस्तित्व तो उसमें अवश्य रहता है, किन्तु उसका कोई अनिष्ट प्रभाव नहीं पड़ता । इसी प्रकार पुण्य प्रकृति के साथ जो घाती कर्म का बन्ध होता है, उसका स्थिति-बन्ध और रस-बन्ध बहत ही अल्प होता है। याद रखिए, पूण्य और पाप का बन्ध कभी अकेले नहीं होता है । नीचे के गुणस्थानों में जहाँ पुण्य का बन्ध होता है, वहाँ किसी अंश में पाप का बन्ध भी रहता है, और जहाँ पाप का बन्ध होता है, वहाँ भी किसी अंश में पुण्य का बन्ध होता ही है । वीतराग गुण स्थानों में यद्यपि एक मात्र पुण्य बन्ध होता है, परन्तु वहाँ कषाय के क्षय अथवा उपशम होने से उस पुण्य बन्ध का भी स्थिति बन्ध और रसबन्ध नहीं होता । केवल प्रकृति एवं प्रदेश बन्ध ही होता है और वह भी मात्र एक समय के लिए ही। दूसरे समय में कर्म परमाणु स्वतः ही आत्मा से अलग हो जाते हैं, उन्हें आत्मा से दूर करने के लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है । कर्म बन्ध आत्मा के परिणाम से होता है । बन्ध के समय आत्मा का जैसा परिणाम होता है, वैसा ही बन्ध हो जाता है। एक सम्यक दृष्टि आत्मा जब पुण्य कर्म चेतना द्वारा, पुण्य का बन्ध करता है, तब एक ओर कर्म बन्ध की धारा होती है, तो दूसरी ओर ज्ञान की धारा भी बहती रहती है, जितने-जितने अंशों में विशुद्ध ज्ञान-धारा रहती है, उतने-उतने अंशों में वहाँ संवर एवं निर्जरा अवश्य होती है । हम कहीं एकान्त निर्जरा, कहीं एकान्त बन्ध, कहीं एकान्त पुण्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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