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________________ तीन प्रकार की चेतना | ३६३ अवश्य होता है । इसी प्रकार कर्म का जो जड़ बन्ध होता है, वह अपने आप नहीं होता है । उसका भी कारण अवश्य होता है। जड़कर्मबन्धरूप कार्य के प्रति जो चेतना का रागद्वेषात्मक विकल्प निमित्त कारण होता है, उस निमित्त कारण को ही चेतन-बन्ध कहा जाता है । शास्त्र में जड़ कर्म को द्रव्य कर्म और चेतन कर्म को भाव कर्म भी कहा गया है । भाव कर्म से द्रव्य कर्म और द्रव्य कर्म से भाव कर्म का बन्ध होता रहता है। जैन दर्शन कहता है, कि कार्य की अपेक्षा कारण से ही अधिक संघर्ष करने की आवश्यकता है। कारण के टूटने पर कार्य स्वयं टूट जाएगा । कार्य से अधिक महत्वपूर्ण वह कारण है, जो कार्य का जन्म दाता है। जैन दर्शन और जैन साधना में सर्व प्रथम कारण से ही संघर्ष करने की बात कही गई है । यही जीवन का सच्चा लक्ष्य है । जैन दर्शन में कर्म चेतना का जो स्वरूप बतलाया है, मैं उसी का प्रतिपादन कर रहा था । मैंने आपसे कहा था, कि जैन दर्शन कार्य में परिवर्तन लाने की अपेक्षा पहले कारण में परिवर्तन लाने की बात कहता है । अभी मैंने आपसे द्रव्य कर्म और भाव कर्म की बात कही थी, जिसे कर्म चेतना कहा जाता है, वस्तुतः वही भाव कर्म है । कर्म चेतना के दो भेद हैं- पुण्य कर्म-चेतना और पाप कर्म चेतना । किसी दुःखी व्यक्ति को देखकर उसके दुःख को दूर करने की भावना से उसे जो दान दिया जाता है अथवा उसकी सेवा की जाती है, वह पुण्य कर्म चेतना है । इसी प्रकार रागात्मक भाव से देव की उपासना करना, गुरु की भक्ति करना आदि भी सब पुण्य कर्म चेतना हैं । पुण्य कर्म चेतना में दूसरे को सुख आदि देने की अनुराग भावना मुख्य रहती है । पुण्य कर्म चेतना भी आत्मा का एक विकल्प है । भले ही वह शुभ ही क्यों न हो, किन्तु है तो विकल्प ही ? आत्मचेतना में जब कभी शुभ कार्य करने का विकल्प उत्पन्न हो, तब वहाँ उसे पुण्य कर्म चेतना ही समझना चाहिए । शास्त्र में कहा गया है, कि आठ प्रकार के कर्मों में से चार कर्म घाती हैं और चार अघाती हैं । चार घाती कर्म ये हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय । चार अघाती कर्म इस प्रकार हैं वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र । घाती कर्म का अर्थ है-आत्मा के ज्ञान आदि गुणों का घात करने वाला कर्म । अघाती कर्म का अर्थ है - वह कर्म जो आत्मा के गुणों का घात तो नहीं करता, किन्तु वह मोक्ष का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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