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________________ सम्यक् दर्शनः सत्य दृष्टि | १४१ एक भक्त कवि ने आत्म-गुणों की स्तुति करते हुए कहा है, कि “सम्यग दर्शन अन्य समस्त गुणों से श्रेष्ठ इसलिए है कि यह जीवन के विकास का मूल आधार है। सम्यक् दर्शन के सद्भाव में ही ज्ञान, सम्यक् ज्ञान हो जाता है और चारित्र, सम्यक् चारित्र हो जाता है।" आप लोग इस बात का निश्चय कर लें, कि यदि जीवन में सम्यक् दर्शन है तो सब कुछ है और यदि सम्यक् दर्शन नहीं है, तो कुछ भी नहीं है । अध्यात्म-शास्त्र में सम्यक् दर्शन को चिन्तामणि रत्न कहा गया है। चिन्तामणि रत्न का अर्थ यही है कि जो कुछ संकल्प हो, वह पूर्ण हो जाए। चिन्तामणि रत्न एक भौतिक पदार्थ है, वह आज है, कल हाथ से निकल भी निकल सकता है। किन्तु सम्यक् दर्शन तो एक ऐसा आध्यात्मिक रत्न है, जो एक बार परिपूर्ण शुद्ध रूप से प्राप्त होने पर फिर कभी जाता ही नहीं। मेरा अभिप्राय क्षायिक सम्यक् दर्शन से है । यह एक ऐसी शक्ति है, जिसके प्राप्त होने पर संसार के अन्य किसी भौतिक पदार्थ की अभिलाषा रहती ही नहीं है। कल्पना कीजिए-एक जन्मान्ध व्यक्ति है। उसे कुछ भी दीखता नहीं है। परन्तु पुण्योदय से यदि उसे नेत्र ज्योति प्राप्त हो जाए, तो उसे कितना हर्ष होगा, उसे कितनी प्रसन्नता होगी और उसे कितनी खुशी होगी ? उसकी प्रसन्नता और खुशी का कोई पार न होगा । अन्धे व्यक्ति को सहसा नेत्र-ज्योति उपलब्ध होने पर जितना हर्ष होता है, उससे कहीं अनन्त गुण अधिक हर्ष एवं आनन्द उस व्यक्ति को होता है, जिसने अपना अनन्त जीवन मिथ्यात्व के घोर अन्धकार में व्यतीत करने के बाद प्रथम बार सम्यक् दर्शन की निर्मल ज्योति को देखा है । साधक-जीवन में कभी सुख आता है, तो कभी दुःख भी आता है । कभी अनुकूलता आती है तो कभी प्रतिकूलता भी आती है। कभी हर्ष आता है तो कभी विषाद भी आता है। जीवन के गगन में सुखदुःख के मेघों का संचार निरन्तर होता ही रहता है । ऐसा नहीं हो सकता, कि जीवन में सदा सुख ही सुख रहे, कभी दुःख न आए। और यह भी सम्भव नहीं है, कि जीवन सदा दुःख की घनघोर घटाओं से ही घिरा एवं भरा रहे । सुख भी आता है और दुःख भी आता है । साधक का कार्य है सुख एवं दुःख में संतुलन रखने का । सच्चा साधक वही है जो कभी दुःखों से व्याकुल नहीं होता और जो कभी सुखों में मस्त नहीं होता । साधक जीवन की यह स्थिति तभी होगी, जब कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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